Monday, 23 March 2015

समाज व संगठन की आवश्यकता- डा.शीशपाल हरडू

समाज व संगठन की आवश्यकता- डा.शीशपाल हरडू
समाज व संगठन की आवश्यकता - मानव एक सामाजिक प्राणी है उसे समाज की आवश्यकता हर कदम पर पड़ती है , बिना समाज के मानव के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती I समाज से निकल के जब कोई अकेला हो जाता है तो वह मनुष्य अपना आत्मनियंत्रण ओर आत्मविश्वास खो देता है, अवसाद, तनाव व अकेलेपन में खो जाता है तथा असफलता के अँधेरे कुएं में जा गिरता है I इसीलिए व्यक्ति से परिवार, परिवार से गाँव, गाँव से समाज, समाज से देश और देश से दुनियां बनी और इसकी परस्पर निर्भरता व सहयोग की परंपरा  से अपना जीवन सुखद, सरल व सुरक्षित बनाया I आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर पुन: एकल परिवार और एकांकी जीवन की मृगतृष्णा में फंस रहा है और समाज को विघटित करते हुए संयुक्त परिवार खत्म कर रहे है तथा युवा अपना जीवन बर्बाद कर रहा है I आज समाज व परिवार में जो संकिरणता व्याप्त है, घर परिवार का अस्तित्व खतरे में है, रिश्ते दाव पर है और हम अँधेरे की ओर भाग रहे है इसका बचाव हमारी परम्परा, संस्कृति में निहित नियम ‘वसुदेव कुटुम्भ’ में है और अपना निज हित छोड़ कर सर्व हित व विघटन को खत्म कर संगठन को अपनाना होगा तभी हम सहज व सुरक्षित जीवन जी पाएंगे I
संघों शक्ति कलियुगे कलयुग में संघ की शक्ति ही महत्वपूर्ण व प्रभावी है, संगठन ही हम सुरक्षित है व हमारा कल्याण है I संगठन में समूह की शक्ति व समझ से सफलता में गुणात्मक वृद्धि होती है तथा भार व कष्ट विभाजित हो जाता है तभी तो हम किसी महत्वपूर्ण कार्य को करते है तब संगठित प्रयास करते है I भगवान राम ने वानर सेना का समूह बनाया तो भगवान कृष्ण ने पांडवों को संगठित किया ओर अनीति व अधर्म के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी न की अकेले- अकेले रहकर I ठीक इसी प्रकार आज युवा साथिओं से निवेदन की नव-युगनिर्माण , नव-सृजन हेतु तथा अपने पूर्वजों की धरोहर को संरक्षित करने, संवारने व संजोने के लिए हमें हमारे समज को संगठित करना होगा तथा हमें अपनी पहचान प्रगतिशील, कर्मठ, शिक्षित, सहकार, सहयोगी व सृजनशील की बनानी होगी I अब हमें भाईचारे की मशाल हाथ में लेकर प्रेम प्यार का संदेश देते हुए संयुक्त व संगठित होना है I   
अकेला चना पहाड़ नहीं फोड़ सकता एक और एक मिलकर दो नहीं ग्यारह की ताकत बनते है , इसीप्रकार एक एक सींख से झाड़ू बनती है और यदि सींख बिखर जाये तो कचरा कहलाती है और जब वही सींख इकट्ठी होकर झाड़ू बनती है तो कचरे को ही साफ करती है I इसलिए अगर हम सब अलग अलग बिखरे रहेंगे तो हमारी ताकत व पहचान न के बराबर है परन्तु जब हम समूह में संगठित होकर समाज के सामने आयेंगे तो एक नई नज़ीर पेश होगी I जब दुर्जन लोग ताश खेलने या शराब पीने के लिए तुरंत समूह बना लेते है तो क्या हम अच्छे उद्देश्य, शुभ कर्म व श्रेष्ठ चिंतन के लिए संगठित नहीं हो सकते ?  यदि हम सृजनात्मक उद्देश्य के लिए संगठित होकर प्रयास करेंगे तो समाज की तस्वीर व तक़दीर ही बदल जाएगी I आज लोगों की सोच संकीर्ण व नजरिया नकारात्मक हो गया है और ‘अकेला चलो’ की राह पर चल रहा है जबकि शक्ति में वृद्धि या कमी गुणात्मक होती है I सामूहिकता में सहयोग, सुझाव, विचार, क्रिया व शक्ति का संचार बहुकोणीय हो जाता है तथा सफलता सरल हो जाती है I
संगठन की कार्यप्रणाली – संगठन या समूह में कार्य करने के लिए हमें बहुत ज्यादा त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, इसके लिए आपको अपनी सोच को सकारात्मक बनाना होगा I स्वयं का और अपने बच्चों का भरण-पोषण व रक्षा तो पशु पक्षी योनी में भी किया जाता है परन्तु मानव योनी में आकर हम अपने विवेकानुसार समाज में अपना एक स्थान बनाते है जिसे छोटे स्तर पर परिवार और विस्तृत स्तर पर समाज की संज्ञा दी जाती है व उसमे स्वयं को सुरक्षित महसूस करते है I समूह में हमे बस छोटे स्तर से विस्तृत स्तर की सोच, विचाधारा को बढ़ावा देते हुए स्वयं के विकास व उन्नति में समाज का विकास व उन्नति खोजनी है I घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों की जिम्मेदारी निभाने के बाद फुर्सत के कुछ क्षण समाज चिंतन हेतु लगाइए, थोडा वक्त समाज को भी दीजिये क्योंकि समाज का एक भाग हमारा परिवार है और परिवार के अभिन्न अंग आप है I यदि सब साथी एक-एक दिन संगठन को दें व यदि 365 साथी जुड़ जाये तो 365 दिन मिल गए I यह कार्य एक-दो या पांच-सात का नहीं, सबका है , सबके लिए है और सब करें क्योंकि बूंद-बूंद से ही सागर भरता है I
संगठन के लाभ – 1. मिलजुल कर सृजनात्मक विषयों पर सार्थक चर्चा संभव होगी I
2. सामाजिक समस्याओं व कुरीतिओं का निवारण संभव होगा I
3. समूह व सहकारिता की भावना का विकास होगा I
4. अपनी विरासत व इतिहास का सृजन व सरंक्षण संभव होगा I
5. समाज में शिक्षा के प्रचार प्रसार को गति मिलेगी I

23/03/2015 

एकता में उन्नति व शक्ति – डा शीशपाल हरडू

एकता में उन्नति व शक्ति – डा शीशपाल हरडू
एकता का अर्थ यह नहीं होता कि किसी विषय पर मतभेद ही न हो। मतभेद होने के बावजूद भी जो सुखद और सबके हित में है उसे एक रूप में हम सभी स्वीकार कर लेते हैं। एकता का मतलब ही होता है, सब के भिन्न-भिन्न विचार होते हुए भी हम आपसी प्रेम, प्यार और भाईचारे के साथ एकजुट एक साथ खड़े रहना । एकता में केवल शारीरिक समीपता ही महत्वपूर्ण नहीं होती बल्कि उसमें मानसिक,बौद्धिक,  वैचारिक और भावात्मक निकटता की समानता आवश्यक है। एकता ही समाज का दीपक है- एकता ही शांति का खजाना है। समाज की एकता के साथ आवश्यकता है- घर की एकता, परिवार की एकता की। क्योंकि जब तक घर की एकता नहीं होगी- तब तक समाज, राष्ट्र, विश्व की एकता संभव नहीं। एकता ही समाज को विकासशील बना सकती है। इसलिए परिवार की परिभाषा को विस्तृत  बनाये और आपसी मतभेद को मनभेद में तब्दील होने से पूर्व ही उसका उचित समाधान निकाल कर एक माला और उसके मानकों की भांति परिवार को एक मजबूत इकाई का स्वरूप प्रदान करें I संगठन से एकता का जन्म होता है एवं एकता से ही शांति एवं आनंद की वृष्टि होती है।
संगठन ही सर्वोत्कृषष्ट शक्ति है। संगठन ही समाजोत्थान का आधार है। संगठन के बिना  समाज का उत्थान संभव नहीं। एकता के बिना समाज आदर्श स्थापित नहीं कर सकता।, क्योंकि एकता ही समाज एवं देश के लिए अमोघ शक्ति है, किन्तु विघटन समाज के लिए विनाशक शक्ति है। विघटन समाज को तोड़ता है और संगठन व्यक्ति को जोड़ता है। संगठन समाज एवं देश को उन्नति के शिखर पर पहुंचा देता है। आपसी फूट समाज का विनाश कर देती है। धागा यदि संगठित करके एक रस्सी बना ली जाए तो वह हाथी जैसे शक्तिशाली जानवर को भी बांधा जा सकता है। किन्तु यदि वे धागे अलग-अलग रहें तो उससे एक तिनके को भी नहीं बांधा जा सकता  हैं। संगठन ही प्रगति का प्रतीक है, जिस घर में संगठन होता है उस घर में सदैव शांति एवं सुख की वर्षा होती है।
बिखरा हुआ व्यक्ति टूटता है- बिखरा समाज टूटता है- बिखराव में उन्नति नहीं अवनति होती है- बिखराव किसी भी क्षेत्र में अच्छा नहीं। जो समाज संगठित होगा, एकता के सूत्र में बंधा होगा, वह कभी भी परास्त नहीं हो सकता- क्योंकि एकता ही सर्वश्रेष्ठ शक्ति है, किन्तु जहाँ विघटन है, एकता नहीं है उस समाज पर चाहे कोई भी कमजोर कर देगा।
बहुत बड़े विघटित समाज से छोटा सा संगठित समाज ज्यादा श्रेष्ठ है। इसलिए मेरे प्रिय युवा साथिओं, यदि आप अपने समाज को आदर्श बनाना चाहते हो तो एकता की और कदम बढाओ। जब समाज संगठित, शिक्षित व समृद्ध होगा तो हम सब भी शिक्षित व समृद्ध होंगे I
23/03/2015


Sunday, 22 March 2015

प्रबंध की जीवन में सार्थकता- डा.शीशपाल हरडू

प्रबंध की जीवन में सार्थकता- डा.शीशपाल हरडू
भूमिका- प्रबंध का सामान्य अर्थ व्यवस्थित होने या करने से लगाया जाता है, अवसर, साधन सिमित व मांग, चुनौतियां, आवश्यता असीमित है और उनमें सामजस्य स्थापित करते हुए दूसरों से बेहतर व सार्थक परिणाम प्राप्त करना ही पबंध है I मनुष्य संवेदनशील, विवेकशील व चिन्तनशील प्राणी है अत: किसी क्रिया की प्रतिक्रिया क्या होगी, पूर्वंनिर्धारण करके कोई सर्वमान्य सिद्धांत देना मुश्किल होता है I एक व्यक्ति आज जीने के लिए संघर्ष कर रहा है, कल सुरक्षा के लिए, फिर सम्मान के लिए तो कभी सहजता व कल्याण के लिए संघर्ष करता नजर आता है I अति महत्वपूर्ण बात की अवेहलना कर जाता है, वहीँ छोटी सी बात को भार/बोझ  मान लेता है I मनुष्य के व्यवहार पर खुद की सोच के अतिरिक्त उसके परिवार, नाते-रिश्तेदार, समाज में व्याप्त घटनाये भी प्रभावित करती है और आपने व्यवहार में परिवर्तन व बदलाव लाता है I आज एक तरफ मनुष्य तनाव, अवसाद व दवाब में जी रहा है वहीँ  दूसरी और प्रतिस्पर्धा भयावह रूप ले रही है ऐसे वातावरण में मानव प्रबंध के लिए सर्वमान्य सिद्धांत तो नहीं दिए जा सकते परन्तु  उसकी जीवनचर्या को सरल व  कार्यक्षमता को प्रभावी बनाने के लिए मार्गदर्शन तो किया ही जा सकता है I
सामान्य प्रबंध- मानव सभ्यता के विकास के साथ बाज़ार का भी विकास हुआ और बाज़ार को नियंत्रण करने व प्रभावी बनाने के लिए प्रबंधन का भी विकास हुआ I जब हेनरी फेयोल के प्रबंध के सिद्धांत विकसित नहीं हुए होंगे, टेलर का वैज्ञानिक प्रबंध की भी खोज नहीं हुई होंगी, ओद्योगिक क्रांति भी नहीं आई थी , परन्तु  प्रबंध का अस्तित्व किसी न किसी रूप में अवश्य रहा है I ओद्योगिक इकाइयों में नहीं, घर-परिवार का प्रत्येक दैनिक कार्य प्रबंध से ही सम्पन्न होता है बिना प्रबंध के किया गया प्रयास अँधेरे में तीर चलाना मात्र है I बिना प्रबंध के सामूहिक क्रिया की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती बल्कि व्यक्तिगत जीवन जीना भी संभव नहीं हो सकता I जब हम नियमबद्ध, क्रमबद्ध और व्यवस्थित तरीके से काम करते हुए सफलता की सम्भावना को बढ़ाना चाहते है तो हमे प्रबंध की शरण में जाना ही होगा, बिना प्रबंध सफलता अंधे के हाथ बटेर लगने के समान है I  प्रबंध मनुष्य की सभी क्रियाओं में अंतर्व्याप्त है और इससे बाहर व इसके बिना कुछ भी संभव नहीं है I हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य जैसे उत्पादन, व्यवसाय, शिक्षा, धर्म, राजनीति, सामाजिक उत्थान आदि संगठनों से बंधे है और मानव अपने लक्ष्य व आवश्यकता की पूर्ति हेतु विभिन्न संस्थाओं पर निर्भर रहता है अत: प्रबंध ही  संगठनों को उत्पादक, उद्देश्यपूर्ण व कार्यशील बनता है I पबंध ही मानव-शक्ति, सामग्री, मशीन, बाज़ार व मुद्रा आदि संसाधनों का उचित विदोहन करके लाभभागिता बढाता है I प्रबंध  नियोजन, संगठन,उत्प्रेरण, मार्गदर्शन, निर्देशन, नेतृत्व, पर्यवेक्षण, निर्णयन, सृजन और नियंत्रण की एक प्रक्रिया है I इस प्रक्रिया से हम न केवल स्वंय कार्य करते है बल्कि अन्य सहयोगी व अधीनस्थों से भी कार्य वैज्ञानिक ढंग से करवाने में सफल होते है I प्रत्येक कार्य को करने का एक सर्वोतम ढंग होता है की अवधारणा को स्वीकार करते हुए प्रयोगों व विश्लेषणों के आधार पर कार्य की सर्वोतम विधि खोजने और उस विधि से कार्य करना व करवाना प्रबंध कहलता है I
समय के साथ कार्य प्रबंध- प्रबंध मूलतः संसाधनों का ही किया जाता है और संसाधनों में मानव-शक्ति, सामग्री, मशीन, बाज़ार व मुद्रा के रूप में प्राप्त है इनमें से केवल मानव-शक्ति ही संजीव है अन्य सब निर्जीव है और इन निर्जीव संसाधनों का प्रबंध संजीव संसाधन यानि मानव-शक्ति को ही करना होता है I मानव संसाधन से आशय मानव के समय से होता है और उसका समय खरीद कर उसे प्रशिक्षित करके उसकी गुणवता तो बधाई जा सकती है परन्तु उसकी कार्यक्षमता को भविष्य के लिए संरक्षित करके नहीं रख सकते बल्कि उसकी कार्यक्षमता को सही समय पर, सही स्थान पर, सही निर्देशन के साथ योजनाबद्ध तरीके से लगाकर लाभ लिया जा सकता है I समय अविरल चलता है, यह न कभी रुका है और न कभी रुकेगा, इसलिए जिस संसाधन पर हमारा नियंत्रण ही नहीं है उसका हम प्रत्यक्ष तौर पर प्रबंध भी नहीं कर सकते I हाँ, समय अपनी गति से चलता है  अत: समय की गति के साथ हम अपने प्रयासों यानि किए जाने वाले कार्यों का प्रबंध कर सकते है I समय पर हमारा नियंत्रण नहीं है परन्तु हम कब क्या कार्य करें इस पर हमारा  नियंत्रण है , अत: स्वंय पर नियंत्रण करके ही हम किए जाने वाले कार्यों व प्रयासों का सही व उचित प्रबंध करके समय का सदुपयोग कर सकते है I हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए की समय पर नियंत्रण सम्भव नहीं है अत: इसका प्रत्यक्ष प्रबंध भी सम्भव नहीं हो सकता I  इसलिए हम अपने संसाधनों, कार्यों व प्रयासों  का प्रबंध करके ही अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों  व मंज़िल को प्राप्त कर सकते है I  हमारा समय के साथ कार्यों व प्रयासों का समन्वय  ही कार्य का प्रबंध कहलाता है जिसे कुछ लोग समय प्रबंध भी कह देते है I
जीवन प्रबंध-संसार के सब प्रबंध सीख लिए मगर जीवन का प्रबंध शेष राह गया जबकि मानव के लिए जीवन से महत्वपूर्ण अन्य कुछ भी नहीं, यदि जीवन है तो सब कुछ है I जीवन मूल्यों से पहले जीवन का प्रबंध सही व उचित होना आवश्यक है अन्यथा जीवन को व्यर्थ गंवाने का कोई ओचित्य नहीं I यदि जीवन में निराशा, नीरसता, निष्फलता है तो इसके पीछे हमारे कु-प्रबंध का ही हाथ है क्योकि सफलता में कर्म की प्रधानता रहती है और हम नियोजित कर्म के अभाव में असफल होकर किस्मत को अन्यथा दोष देते है I प्रबंध कहिए या व्यवस्था, एक की बात है और जीवन में सु-प्रबंध मानव का अति विशिष्ट गुण है तथा इसे समाज में प्रचलित करना चाहिए Iजीवन को व्यवस्थित करना बहुत ही कथन काम है मगर सफल जीवन जीने के लिए उतना ही आवश्यक भी है I आज विज्ञानं ने जितनी उन्नति की है उससे कहीं ज्यादा चुनौतियां भी खड़ी कर ली है और एक तरफ जीवन सुगम, सरल व आसान हुआ है वहीँ आलस्य, अवसाद, तनाव व अकेलापन की समस्या भी पैदा हो रही है I भौतिकवादिता व प्रतिस्पर्द्धा के युग में युवावर्ग तरक्की व उन्नति की चाह में अपनी दिनचर्या को बिगाड़ रहा है व नई नई चुनौतिओं को आमंत्रण दे रहा है I विज्ञानं की सहायता ले, विकास करें,नई तकनीक अपनाएं मगर अपनी मौलिक अवधारणा व प्राकृतिक मूल्यों की कीमत पर नहीं I माना विकास के साथ विनाश भी होता है परन्तु हमे अपना जीवन प्रबंध या व्यवस्था इसप्रकार बनानी चाहिए की विकास अधिकतम व विनाश न्यूनतम हो, प्रकृति के सानिध्य में रहकर संसाधनों का जागरूकता के साथ प्रयोग करते हुए जीवन मूल्यों को सुगम, सरल, सहज व सफल बनाना होगा I  
स्वंय प्रबंध- दुनिया में एक देन ऐसी है जिसे हर कोई देना चाहता है, लेना कोई नहीं  और वो है प्रवचन, उपदेश या आदेश I हम अब तक दुसरों के बारे में ही बातें करते आये है स्वंय के विषय में कभी कुछ नहीं बोला I प्रबंध में भी हम दूसरों से कार्य करवाना को ही शामिल करते रहे है या दूसरों को ही व्यवस्थित होने का उपदेश देते रहे है I अब इस विचर में परिवर्तन आ रहा है और मानव स्वंय को भी प्रबंध का अंग मानने लगा है और स्वंय को व्यवस्थित की बात करने लगा है I वास्तविकता भी यही है की हम दूसरों की अपेक्षा स्वंय को आसानी से बदल सकते है, परिस्थितिनुसार परिवर्तित कर सकते है और अन्य जन को अभिप्रेरित करने के लिए स्वंय अपने आप का अभिप्रेरण आवश्यक है I स्वंय का प्रबंध व्यक्तिगत जीवन के लिए ही नहीं बल्कि सार्वजनिक जीवन के लिए भी आवश्यक है क्योंकि हमारी सफलता हमारे सहयोगिओं को भी अभिप्रेरित करती है I अत: जीवन में सफल व कामयाब होने के लिए उपदेश की अपेक्षा अनुकरण व अनुशरण अधिक प्रभावी व कारगर सिद्ध होता है  
निष्कर्ष- प्रबंधित या व्यवस्थित ढंग से किया गया प्रयास सफलता के समांतर होता है और योजनाबद्ध, व्युरचना के साथ संसाधनों का समुचित व क्षमतानुसार उपयोग करते हुए कार्य का प्रारम्भ निश्चित व सिद्ध फल के साथ अंत की और ले जाता है I आज पीछे देखने का वक्त नहीं है बल्कि अतीत के सबक को साथ लेकर आज अपना सम्पूर्ण देकर कल को सुखद, सुंदर व सफल बनाने का है I आज आदेश या निर्देश से नहीं बल्कि नेतृत्व व अग्रणीयता प्रदान करते हुए संसाधनों को प्रयास से परिणाम में परिवर्तित करने का प्रबंध करने की जरूरत है तभी हम इच्छित व स्थायी मंज़िल हासिल कर पाएंगे I

22/03/2015

Thursday, 19 March 2015

घर को घर बनाये, मकान नहीं –डा. शीशपाल हरडू

घर को घर बनाये, मकान नहीं –डा. शीशपाल हरडू
जहाँ हम रहते है उसे हम मकान कहें या घर, इस विषय पर गंभीर चिंतनमनन  करें तो इनमें अंतर स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है I घर यानि अपना पैतृक या आवासीय निवास स्थान और मकान यानि ईट पत्थर आदि से बना निवास स्थान I आमतौर पर हम कहते है की हम अपने घर में रहते है या फिर हमनें किराये पर मकान ले रखा है तो इससे स्पष्ट होता है की घर का मतलब निज का अपना, यानि जिससे हमारा आत्मीय भाव जुड़ा हो और मकान का मतलब दुसरे का आवास, भवन या इमारत I घर का संम्बंध संस्कारों से, मान-मर्यादा से, रहन-सहन से और कुटुम्ब परिवार से जुड़ा होता है तथा इसके साथ हमारा आत्मिय व हर्दिकभाव जुड़ा होता है, इसकी महता व सार्थकता अपनी निज की रिहायश  अतार्थ घरनी से है तभी को करते है “बिन घरनी घर भूत का डेरा I जबकि मकान का संम्बंध ईट, पत्थर, रेत, गारे या सीमेंट से बने ढांचे से है जहाँ रिहायश नहीं हुई हो अब तक अतार्थ वो मकान जहाँ रिहायश हो जाये व आत्मीयता जुड़ जाये घर बन जाता है I
मकान को आवश्यक होने पर मकान मालिक खुद मजदुर लगवाकर या मशीनों से तुड़वा सकता है जबकि घर को उसके सदस्यों की फूट ही तोड़ती है उसका मालिक कभी नहीं I हम अपने बच्चों या नाते रिश्तेदार को यही कहते है की चलों घर चले या घर जाइये, यह कोई नहीं कहता की मकान जाइये क्योंकि घर से प्रेम, लगाव व अपनापन जुड़ा होता है I भाषा में भी मकान की तुलना में घर को ज्यादा महत्व दिया है और अनेको मुहावरे व लोकोक्तियाँ घर पर बनी है न की मकान पर I सामान्य बोल-चल में भी घर का प्रयोग ज्यादा होता है मकान की बनिस्पत जैसे शतरंज में 64 घर होते है मकान नहीं I इसलिए स्पष्ट है की जहाँ हम अपने परिवार के साथ अपनेपन से रहते है वह घर होता है I
घर से हम भावनात्मक रूप से जुड़े होते है इसीलिए हमारे परिवार का सम्बोधन घर से होता है और उसकी विशेषता घराना प्रकट करता है I एक छत के नीचे रहने वाली एक इकाई जो परिवार के रूप में रहते है उसके आत्मीय निवास को घर कहते है जहाँ सब सहकार, सरोकार व सहयोग से एक कर्ता के नेतृत्व में टीम भावना से वास करते हुए रहते है  और उनका आंकलन व्यक्तिगत न होकर घर या घराना के रूप में होता है I आप क्या है ? क्या करते है ? व्यवहार कैसा है ? इससे आपका घराना तय होता है उसकी पहचान तय होती है और समाज में मूल्य या महत्व तय होता है I इसलिए हमें अपने घर परिवार की मान-मर्यादा, नाम, ख्याति और परम्परा को ध्यान में रख कर ही अपना चल-चलन, चरित्र, आचरण व व्यवहार करना चाहिए कयोंकि व्यक्ति का व्यवहार उसके घर व खानदान का आइना होता है और आइना कभी झूठ नहीं बोलता I
इसलिए हमें अपने अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ मिलकर अपने घर को सिर्फ घर ही नहीं बल्कि श्रेष्ठ व सुंदर घर बनाना चाहिए और इसके लिए हमें अपने व्यवहार में निम्नलिखित बातों को अपनी जीवनचर्या का अंग बनाना होगा :
1.       सभी आपस में प्रेम, प्यार, सहचार व सहयोग से रहे, आपसी मनमुटाव को न पनपने से , संदेह व शंका का तुरंत खुले मन से समाधान निकाले, बड़ों का आदर व सम्मान करें तथा छोटों को संस्कार व प्यार दे I
2.       बुजुर्ग, रोगी, आतुर व जरूरतमंद की सेवा व सहयोग करें तथा अतिथि, साधु संत को निर्दोष भोजन दें व सेवा सत्कार करें I
3.       घर की बात घर में रखें, भूल व गलती को अनावश्यक तूल न दें, चोरी व छिपाव  व चुगली निंदा से बचें तथा सबसे समतायुक्त व्यवहार करें I
4.    अविश्वासी व दुर्जन व्यक्ति से दुरी रखें, सज्जन की संगत करे, सामाजिक बातों व रीति-रिवाजों का पालन करे I   
5.    जहाँ तक हो सके सब सदस्य एक साथ मिलकर भोजन ले, पारिवारिक व सामाजिक समस्या पर सामूहिक चिन्तन व विचार करते हुए समाधन निकालने का प्रयास करें, बड़ों की बात व भावना का सम्मान करें, सर्व हित पर निज हित को हावी न होने दें, पक्षपातपूर्ण कार्य न करें I
6.    सब में मित्रवत भाव रखे तथा नशे, कुविचार, कुसंगत से बचें; चरित्र व स्वास्थ्य को ऊँचा रखें I

19/03/2015 

Wednesday, 18 March 2015

शिक्षक,शिक्षार्थी और शिक्षा का सामाजिक आयाम : डा. शीशपाल हरडू

शिक्षक,शिक्षार्थी और शिक्षा का सामाजिक आयाम : डा. शीशपाल हरडू

शिक्षा का ओपचारिक अर्थ : शिक्षा व्यक्ति की आंतरिक शक्तियों को बाहर लाने या विकसित करने की क्रिया से लिया जाता है I इसी अर्थ को स्वामी विवेकानंद ने मानते हुए कहा कि “मनुष्य में अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है I इस अर्थ के अनुसार शिक्षा व्यक्ति को शिक्षित करती है ,पथ प्रदर्शन करती है , परिस्थतियों से लड़ना सिखाती है और बुराइयों व समस्याओं के समाधान में सक्षम बनती है I शिक्षा का अर्थ शिक्षित या साक्षर होना मात्र नहीं है, बल्कि जीवन जीने की संपूर्ण कला है। विद्यालय से प्राप्त शिक्षा को जीवन में प्रयोग करना सही शिक्षा है। वह साधन हॆ जो समाज को केवल शिक्षित ही नहीं करती वरन व्यक्ति के आत्मीय विकास में भी अहम योगदान निभाती हॆ I शिक्षा हमारी समृद्धि में आभूषण , विपत्ति में शरण-स्थल और जीवन में आन्नद होती है डा. राधा कृष्णन सर्वपल्ली मनुष्य को सही अर्थों में मनुष्य बनाने के लिए शिक्षा को ही सर्वाधिक आवश्यक मानते हुए कहा की “शिक्षा वह है जो मनुष्य को ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ उसके हृदय व आत्मा का विकास करती है “ अत: नैतिक तथा बौद्धिक दोनों ही प्रकार की शिक्षा को शामिल किया गया है I शिक्षा ऐसी हो जो जो चरित्र निर्माण कर सके,बुद्धि को विकास दे, व्यक्ति स्वावलंबी बन सके, स्वार्थपरक सोच को मिटा कर सहयोग को बढ़ा सके I शिक्षा अज्ञान को मिटा कर ज्ञान की ज्योति जलाती है ,उन्नति के मार्ग पर ले जाती है और सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण करती है I शिक्षा ही जीवन का वह पहलू है जो मनुष्य को इन्सान बनती है और हमें तमाम उम्र अनुशासित, संयमित और प्रगतिशील बनाये रखती है Iइसी से हमें मनन,चिंतन,चेतना, शक्ति, सद्बुद्धि, विवेकशीलता , विचारशीलता और ज्ञान रूपी शक्ति मिलती है
शिक्षा का व्यवहारिक दृष्टि में अर्थ  : वास्तव में  हम जो ओपचारिक शिक्षा ले रहे है सिर्फ वही शिक्षा है या जो हम घर में, समाज में देखकर,सुन समझकर अनुभव से सीखते है वह भी शिक्षा हैI यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ओपचारिक शिक्षा से हम अक्षर ज्ञान सीखते है जबकि अनुभव हमें जीवन जीने की व्यवहारिक सिखाता है I जब बच्चा जन्म लेता है तो उसके पास प्राकृतिक ज्ञान यानि विवेक होता है जो अन्य जीवों के पास नहीं होता, इसी विवेकरूपी ज्ञान से जन्म के बाद प्रतिदिन कुछ नया सीखता है और इस क्रम में सबसे पहले उस शरीरिक ज्ञान जैसे शोच, भूख, प्यास, नींद, दर्द इत्यादि का पता चलता है फिर उसे भावनात्मक ज्ञान यानि स्नेह, रिश्ते, स्पर्श आदि से अवगत होता है ,इसके बाद सामाजिक ज्ञान यानि ओपचारिक शिक्षा, परम्परा, रीती-रिवाज सीखता है और अगला चरण स्वयं से साक्षात्कार यांनी अध्यात्मिक ज्ञान सीखता हैI इस प्रकार हम बचपन से लेकर अंत तक हर स्तर पर कुछ न कुछ नया सीखते है वह सब शिक्षा ही है I
शिक्षक और शिक्षार्थी और शिक्षा : शिक्षा देने वाला शिक्षक और शिक्षा ग्रहण करने वाला शिक्षार्थी और इनका सम्बन्ध होता है शिक्षा से I वास्तविक रुप में शिक्षा का आशय है ज्ञान, ज्ञान की आकांक्षा रखने वाला होता है शिक्षार्थी ओर इसे उपलब्ध करवाने वाला होता है शिक्षक I पुरातन काल में शिक्षा प्रदान कराते थे गुरू और आज शिक्षक I गुरू ज्ञान प्रदान कराते है और शिक्षक अतीत से प्राप्त सुचना या जानकारी को शिक्षार्थी तक पहुंचता है I सुचना अतीत से मिलती है जबकि ज्ञान अन्दर से प्रस्फुटित होता है I आज का शिक्षक और शिक्षार्थी शिक्षा के माध्यम से केवल सुचना का ही विनिमय कर रहे है ज्ञान का नहीं I पूर्व काल में शिक्षा का क्षेत्र व्यापक था परन्तु शिक्षा पर अधिकार सिमित यानि चुनिन्दा जातियां और कुल के बच्चो तक ही सिमित मगर आज शिक्षा का अधिकार तो सबके लिए व्यापक बना दिया परन्तु क्षेत्र सिमित कर लिया I
आज शिक्षा जीवन नहीं बल्कि जीवन का एक अंग मात्र रह गई है ,वह अंग जो जीवनयापन का माध्यम बन गई है और आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का जरिया I आज शिक्षा को एक वस्तु बना कर निजी संस्थाओं के माध्यम से महंगे मूल्य पर शिक्षार्थियों को उपलब्ध करवाई जा रही है जिसके चलते शिक्षकों के प्रति जो समर्पण भाव में कमी आई I शिक्षा विषय पूर्णतया आत्मीय सम्बन्धों पर निर्भर करता है और आदर्श उसका आधार होता है, मगर आज शिक्षा व्यापार बन कर प्रचारित व प्रसारित हो रही है I बाज़ारवाद की संस्कृति में शिक्षक एक कर्मचारी और शिक्षार्थी  एक ग्राहक की भूमिका में आ रहा है और उपाधि जनक शिक्षा बेचीं जा रही है न की मानवीय और व्यवहारिक शिक्षा I
आवश्यकता : आदर्श शिक्षक अपने शिक्षार्थी को आत्मीय दृष्टि से इतना परिपक्व बना देता है की उसे यह क्या सीखना है , क्या पढना है और किन बातों से दुरी रखनी है का भलीभांति निर्णय कर सकता है I इस उत्तरदायित्व का निर्वहन प्रत्येक शिक्षक को करना चाहिए तभी समाज में आपका एक आदर्श के रूप में सम्मान होगा I आज आवश्यकता है कि शिक्षक कबीर का वह कुम्हार बने और अपने शिष्य रूपी कुम्भ को एक आदर्श आकर दें और एक सुंदर व स्वस्थ समाज का निर्माण करने में सहयोग करें I इस दुनियां में केवल तीन प्राणी माँ, बाप और शिक्षक ही आपकी उन्नति की कामना नि:स्वार्थभाव  से करते है अत: इनका मान-सम्मान व आदर और सेवा होनी चाहिए, जो इनका तिरस्कार व अपमान करता है वह कभी भी सफल नहीं हो सकता I  शिक्षार्थी  को भी शिक्षा स्वच्छ व निर्मल साधनों से  विशुद्ध परम्पराओं का आदर करते हुए ग्रहण करनी चाहिय्र, अनैतिक और मूल्य-विहीन साधनों का तिरस्कार करना चाहिए I विद्यार्थी को ऐसे कार्यों से बचना चाहिए जो मूल्यों, विचारों व आदर्शों के विरुद्ध हो I जिस कार्य को करते हुए आपको डर लगे तो वो कार्य गलत है उससे दूर रहे और जिस कार्य को करते हुए आपको भय न लगे ,वह कार्य उचित है और उसे पुरी तन्मयता व लग्न से करें I शिक्षक को शिक्षण संस्था के अन्दर शिक्षार्थियों का और संस्थान के बाहर समाज का मार्गदर्शक बनना होता है और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक  शिक्षा व सोच से शिक्षार्थी व समाज का विकास संभव बनता है I
सही मायनो  में शिक्षा वह है जो विद्यार्थी को किताबी ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नया करने,सोचने ,समझने के लिए प्रेरित कर सके, जाति,धर्म के भेद से दूर करे, भाईचारा व सोहार्द बढाये, महिलाओं के प्रति सम्मान बढाये, निर्धन,बेसहारा व कमजोर के प्रति सहानुभूति व सहयोग की भावना पैदा करे, चरित्र निर्माण हो, मनोशक्ति व बुद्धि का विस्तार हो, निरक्षरता,भ्रष्टाचार,गरीबी,भुखमरी के उन्मूलन की चिन्ता हो I शिक्षा केवल धन अर्जन का साधन न होकर देश सेवा के लिए योग्य,कर्मठ, मानवीय गुणों से परिपूर्ण आदर्श व सभ्य नागरिक बनाने वाली होनी चाहिए I

06/03/2015

Monday, 16 March 2015

अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा अपने पुत्र के शिक्षक को लिखे पत्र का हिंदी अनुवाद और उसकी आज के युग में प्रासंगिकता : डा. शीशपाल हरडू

अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा अपने पुत्र के शिक्षक को लिखे पत्र का हिंदी अनुवाद और उसकी आज के युग में प्रासंगिकता : डा. शीशपाल हरडू
साथियों, अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा अपने पुत्र की शिक्षा व व्यक्तित्व निर्माण हेतु उसके शिक्षक को को लिख गया पत्र प्राचीन कालीन भारतीय गुरुकुल शिक्षा के कितना करीब ले जाती है यह विचार और युवा वर्ग के लिए अध्ययन का तो विषय है ही, साथ में सही मायने में शिक्षा का अर्थ भी दे रहा है, इसी सोच के साथ पत्र का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ _
प्रिय शिक्षक, मेरे बच्चे को समझाए कि सभी व्यक्ति न्यायी और सच्चे नहीं होते फिर भी दुष्टों के प्रतिरोध के लिए शूरवीर होते है I उसे बताएं कि प्रत्येक शत्रु के बदले एक मित्र भी होता है , उसे सिखाएं कि ख़ुद कमाया हुआ एक डॉलर पाए गए पांच डॉलर से ज्यादा कीमती व मूल्यवान होता है , उसे इर्ष्या से दूर रहना भी सिखाएं I उसे आप खेल भावना से हारना सिखाएं और विजयी होने का आनन्द लेना भी सिखाएं I उसे हाँ में हाँ मिलाने वालों से दूर रहने व आलोचकों का सम्मान करने की सीख दें I उसे विनम्र के प्रति विनम्र व कठोर के प्रति कठोर व्यवहार करने की सीख भी दें I उसे दु:ख में हँसाना सिखाएं और यह भी बताये कि रोना शर्म की बात नहीं होती I उसे सिखाएं कि अपना मष्तिष्क तो वह सबसे ऊँचे मूल्य पर बेचे परन्तु अपनी आत्मा व मूल्यों को बिकाऊ न समझे I उसे चीखने, चिल्लाने वाली उग्र भीड़ की तरफ से कान बंद करना सिखाएं I शिक्षा स्नेह से दें परन्तु गलती करने पर डांटे भी क्योंकि अग्नि में तपकर ही लोहा फौलाद बनता है I उसे अपने में विश्वास करना सिखाएं क्योंकि तभी वह ईश्वर और मानवता में विश्वास कर सकेगा I
प्रिय शिक्षक, यह आपसे बहुत बड़ी उम्मीद है परन्तु आप जो कर सकते है , अवश्य करें, बहुत प्यारा नन्हा सा बच्चा है मेरा पुत्र I
उपरोक्त पत्र एक पिता की वास्तविक उम्मीद का न केवल नमूना है बल्कि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य और शिक्षक की भूमिका भी बताता है और भारतीय शिक्षा का दर्शन भी बताता है I यह पत्र ये भी बताता है कि आज  हमें केवल साक्षर नहीं शिक्षित होना है तथा केवल किताबी ज्ञान समाज व राष्ट्र निर्माण नहीं होता बल्कि व्यावहारिक शिक्षा आवश्यक है I  सही मायने में शिक्षा का अर्थ किताबी ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नया सोचने, नया करने और नया समझने को प्रेरित करते हुए सदभाव बढाने व सहानुभूति पैदा करने वाली होती है I शिक्षा न केवल आर्थिक समृद्दी लाये बल्कि विचार, चरित्र, स्वास्थ्य के साथ साथ  सामाजिक व नैतिक पक्ष भी मजबूत करें I हालांकि ये सब बातें आदर्शवादी व काल्पनिक लगती है परन्तु इस सच्चाई से इंकार करना भी अपनी जिम्मेदारी से भागना है I
10/03/2015


नशे की अँधेरी गली में जलते घरों के चिराग़ :डा. शीशपाल हरडू

नशे की अँधेरी गली में जलते घरों के चिराग़ :डा. शीशपाल हरडू
आज भौतिकवादी और प्रतिस्पर्धा के युग में ज़िन्दगी की भागमभाग और बढ़ते काम के बोझ के चलते लोग अब राहत व आराम पाने के नाम पर गलत आदतों के शिकार हो रहे है I नशा इसका एक सरल व सकूनभरा रास्ता प्रतीत होता है और इसके आग़ोश में समा रहे है , परन्तु इस राह के मुसाफ़िर यह नहीं जानते की यह रास्ता उस अँधेरी गुफ़ा की और जा रहा है जिसमें खोकर उनके  परिवार की मान-मर्यादा, यश-कीर्ति, धन-दौलत, जमीन-जायदाद के साथ साथ शारीर और स्वास्थ्य सब कुछ खत्म हो जायेगा I नशे का दानव उस नशेड़ी व्यक्ति को ही नहीं, उसके पुरे परिवार को भी खत्म कर देता है I इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की आज की युवा पीढ़ी नशे के चंगुल में फंसकर अपना सर्वस्व नष्ट करने पर तुली है और तरह तरह के नशे कर रही है I नशे के आदी युवा झूठ तो बोलता ही है परन्तु जब चोरी-चकारी और लूट-पाट की राह पकड ले तो उस समाज और देश के भविष्य की सहज ही कल्पना की जा सकती है I नशे के बारे में विज्ञानं द्वारा सिद्ध सिद्धांत की नशे की लत मौत का खत यानि बे-वक्त मौत को आमन्त्रण होता है फिर भी युवा इस और जा कर अपना जीवन बर्बाद कर रहे है I  एक बिडम्बना यह  भी है की उतरी भारत विशेषतौर पर पाकिस्तान के साथ लगता इलाका इसकी भयंकर चपेट में है, ऐसे में इस क्षेत्र के लोगों की नैतिक जिम्मेदारी बनती है की वे अपने क्षेत्र के युवा साथियों और विद्यार्थियों को नशामुक्त जीवन जीने के लिए प्रेरित करें, उन्हें योग, खेल, चेतना शिविर, मनोवैज्ञानिक सलाह और चिकित्सा सुविधा के साथ जोड़ कर नशे के भयावह से दूर करने में सहयोग करें और स्वस्थ व सुखमयी दुनिया से उनका परिचय करवाए I हमारा हरडू मिलन मिशन चाहता है कि नशे का अंधकार किसी घर को न छू पाए और स्वस्थ व नशामुक्त जीवन का दीपक सदा जगमगाता रहे तथा हमारा युवा नशे से पूर्णतया दूर रहे I आओ हम संकल्प ले कि हमारे समाज से नशे को जड़ से खत्म करे और युवा साथियों को नशे से बचाये I

09/03/2015

Thursday, 12 March 2015

युवा शक्ति की भूमिका- डा शीशपाल हरडू

  
 युवा यानि वायु अतार्थ सदा चलनशील, वेगशील और ताजगीपूर्ण रहने वाली अवस्था इसीलिए युवा को योवन व ताजगी का पर्याय माना जाता है, योवन उर्जा व ओजस्वी होने का प्रतीक और उसमें जोश, साहस व संकल्प का संगम होता है I युवा में उर्जा बहुतायता रहती है तथा उर्जा का आंतरिक नियम है की इसे दबाया नहीं जा सकता बल्कि इसका प्रयोग ही करना होगा , यह प्रयोग करने वाले पर निर्भर रहता है की वो इसका सदुपयोग करे या दुरूपयोग I सदुपयोग योवन को निरंतर ताज़गी और लम्बी अवधी देता है वहीँ दुरूपयोग से योवन हिंसक होकर अल्प अवधि में ही समाप्त हो जाता है I इसलिए युवा में जोश तो रहता ही है परन्तु उस जोश को होश रखते हुए उपयोग करें तो समाज में सृजनात्मकता आएगी, उन्नति को अग्रसर होगा और नवनिर्माण भी I कहते है की बुजुर्ग जीता है अतीत में और योवन जीता है भविष्य की कल्पनाओं में  और इन कल्पनाओं को साकार व सुंदर बनाने के लिए युवा को अपनी शक्ति जोश व होश के साथ सकारात्मक क्रियाओं में लगानी चाहिए I
ज़िन्दगी के दो पहलु होते है ,पहला सरल व आसान यानि अल्प सुखमयी और दूसरा मुश्किल व कठिन यानि स्थायी सफलतामय I जब आप कठिन राह यानि चुनौतियां चुनते है तो आपकी ज़िन्दगी में मुश्किलें तो बहुत सी आती है लेकिन उस मुश्किल दौर को पार करने के बाद आप मजबूत व परिपक्व हो जाते है I फिर आप किसी मुशील से घबराते नहीं बल्कि उनको अवसर समझ कर चुनौतिपुर्वक सामना करते है और सफलता का वरण करते है I जो व्यक्ति हिम्मत व होंसले से काम करते है, दृढ निश्चयी होते है, विपरीत परिस्थितियों का डटकर बहादुरी के साथ सामना करते है, अपने आचरण को कालिख़ से बचाकर रखते है उनकी मंज़िल थोड़ी दूर बेशक हो मगर प्राप्त जरुर होती है और वो भी सुखद व स्थायी I कहते है “सत्य परेशान करता है पराजित नहीं”  क्योंकि सत्य को याद नहीं रखना पड़ता और ये कभी भूलता भी नहीं, इसके मार्ग में मुश्किल बेशक आ सकती है मगर जीत हमेशा सत्य की ही होती है इसलिए सत्य का मार्ग ही श्रेष्ठ मार्ग होता है I
साथियों, इस धरती पर देव भी है और दुष्ट भी है मगर आप किसको क्या दे सकते हो और किससे क्या ले सकते हो, यह पूर्णतया आप पर निर्भर करता है I जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि अतार्थ जिस तरह आप व्यवहार करोगे वैसा ही व्यवहार आपको मिलेगा, अगर सकारात्मक है तो आप देव है क्योंकि आप अपनी उर्जा से सृजन कर रहे है और अगर आप नकारात्मक है तो आप दुष्ट की श्रेणी में आयेंगे क्योंकि आप अपनी उर्जा से विनाश कर रहे है I इसलिए अपनी शक्ति व उर्जा  सकारात्मक व सृजनशील कार्यों में लगाते हुए अपनी भूमिका और उपस्थिति दर्ज़ करवाए I जीवन में कुछ पाना है तो आपको नियम व नम्रता के साथ प्रयत्न करते हुए संयम व सुमार्ग पर चलते हुए अपने अन्दर ललक व लालसा जगाते हुए क्रिया करनी होगी तभी आपको इच्छित मुकाम मिल सकता है और अपनी उर्जा का आप श्रेष्ठ उपयोग कर सकते हो I
व्यक्ति को तीन चीजे बिना  प्रयास के ही मिलती है जन्म, मृत्यु और असफलता, इनके लिए आपको कोई अलग से कोई प्रयास या प्रयत्न नहीं करना होता जबकि तीन चीजे आपको आपकी किस्मत से मिलती है माँ, बाप और गुरू अत: इनका सम्मान करते हुए इनकी योग्यता, गुण, विलक्षणता और सानिध्य का भरपूर उपयोग करते हुए लगातार इनसे शिक्षा लेनी चाहिए I कहते है की माता-पिता भगवान के साक्षात् प्रतिनिधि होते है और गुरू मार्गदर्शक, इसलिए इन्हें हमेशा प्रसन्न और खुश रखना चाहीए और इनकी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी ढूढनी चाहिए I इनकी प्रसन्नता में भगवान की प्रसन्नता छिपी होती है अत: इन्हें हमेशा खुश रखना चाहिए व इन्हें कोई कष्ट नहीं देना चाहिए I जो अपने माता-पिता व गुरू का अपमान व अनादर करता है वह कभी भी और कहीं भी न तो सफल हो सकता और न ही खुश I व्यक्ति को तीन चीजे केवल प्रयत्न से ही मिलती है  सफलता, अधिकार और ख्याति, इसलिए धेर्य व परिश्रम से सफलता प्राप्त करें,मेहनत व योग्यता से अधिकार हासिल करें तथा धर्म, निष्ठा व न्यायपूर्ण क्रियाओं से ख्याति अर्जित करे और इन तीनों को भगवान के प्रतिरूप माता-पिता की सेवा में अर्पित करते हुए कर्म करे I
आज का युवा पांच एम् यानि अपने अभिभावकों के पैसा (मनी) से महंगा मोबाईल व मोटरसाइकिल लेकर म्यूजिक व मदिरा के साथ मस्ती करता है जो न केवल माँ-बाप को धोखा है बल्कि अपना कल खत्म कर लेता है और जीवन को भर बना लेता है I प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चे को “बेस्ट” देना चाहता है जबकि बच्चा “वेस्ट” बन कर न केवल उनके सपने धराशायी कर रहा है बल्कि सम्पूर्ण घर को बर्बाद कर रहा है I  आज अर्थहीन, बेतुके व सस्ते संगीत ने समाजिक परम्परा का जनाज़ा निकाल दिया है वहीँ शराब और सिगरेट ने न केवल जवानी छीन ली बल्कि जानलेवा बीमारी का हर मुफ्त में गले में डाल दिया I आज स्वस्थ संस्कार, स्वस्थ समाज, स्वस्थ संस्कृति और स्वस्थ विचार की आवश्यकता है और इस तरह की क्रांति युवा खून, जोश व जनून से ही सम्भव हो सकती है जो अपनी सीमा भी समझे व कर्तव्य भी तथा इस क्रांति को समर्थन अनुभव, होश व तजुर्बे का भी मिलना चाहिए I
युवा, युवा रहे इस हेतु उसे युवा की भांति आचार, विचार व व्यवहार करना चाहिए, युवा की माफिक रहन सहन ,खानपान व आहार लेना चाहिए, युवा की तरह कर्म, मेहनत व  निर्णय लेने की क्षमता को बढ़ना चाहिए , युवा को अनुशासन, उत्तरदायित्व व कर्तव्यक्षमता में स्थायित्व लाना चाहिए तभी हम अपनी भूमिका का सही व सार्थक रूप से निभाते हुए स्वस्थ, स्वच्छ, सुंदर, सार्थक व सुविकसित देश, प्रदेश, समाज, परिवार और व्यक्तिगत छवि का निर्माण हो सके और खुशहाल व सफल जीवन जी सके I
12/03/2015     

  

Sunday, 8 March 2015

मंज़िल का मार्ग है धैर्य- डा. शीशपाल हरडू


मित्रों, धैर्य का हम सामान्य अर्थ आपत्ति व कठिनाई के समय में अपने विवेक से संयंत और  सत्यता के साथ व्यवहार और प्रयत्न करना होता है I व्यक्ति के जीवन में अनुकूलता भी आती है और प्रतिकूलता भी परन्तु जो अनुकूलता से राग न करे यानि घमंड न करे व प्रतिकूलता से द्वेष न करे यानि विचलित न हो, दोनों परिस्थितियों में समता का व्यवहार करे वही धैर्यवान पुरुष कहलाता है I प्रकृति मानव को कितना सरल तरीके से समझा रही है समता ही स्थायी है और संयम ही जीवन है I जिस प्रकार ऋतू में परिवर्तन से गर्मी सर्दी व बरसात  का मोसम आता है ठीक उसी प्रकार हमारे जीवन में भी कभी ख़ुशी कभी गम तो कभी सामान्य परिस्थिति आती रहती है परन्तु जो हर परिस्थितियों में अपना विवेक खोये बिना अनुकूलता को दीर्घ व प्रतिकूलता को अल्प करने का प्रयत्न करता है वह स्थायी व सच्चे आंनद का हक़दार माना जाता है I जब अनुकूल परिस्थिति यानि सुख स्थायी नहीं रहा तो प्रतिकूल परिस्थिति यानि दुःख भी स्थायी नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति का नियम ही परिवर्तन है I यह बड़ी विडंबना है की जब भी कोई मन की इच्छा पुरी नहीं हुई या इच्छित वस्तु प्राप्त नहीं हुई या आशानुरुप परिणाम नहीं मिला तो हम दुखी हो जाते है, अधीर हो जाते है और विचलित हो जाते है और इसका परिणाम ये होता है की हम आज भी दुःख में व्यतीत कर रहे है व भविष्य भी दुखमय बना रहे है I

इस विषय में कबीरदास जी का दोहा “ज्ञानी काटे ज्ञान से,अज्ञानी काटे रोय, मौत ,बुढ़ापा ,आपदा ,सब काहू को होय “ बहुत ही सार्थक है I जो जन्मा है वो मरेगा भी, बालक जवान भी होगा तो वो बुढा भी होगा, सुख मिला है तो दुःख भी मिलेगा, कभी अनुकूलता होगी तो कभी प्रतिकूलता भी आएगी यानि ये जीवन उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-हानि, यश-अपयश  का संगम है जो ज्ञानी अतार्थ विवेकशील व धैर्यवान व्यक्ति हालात अनुसार अपना व्यवहार, क्रियाकलाप और प्रयत्न करके अनुकूलता में वृद्धि और प्रतिकूलता में कमी कर सकता है I जो विपरीत परिस्थिति में धैर्य के साथ प्रयत्न करते हुए आगे बढ़ता जाता है इतिहास वही बनाता है I कायरों को उतने से ही संतुष्ट होना पड़ता है जितना धीरवान छोड़ देते है I पशु और मानव में सिर्फ विवेक का ही तो अंतर है वरना भय, भूख, मैथुन और सुख-दुःख का अनुभव तो ये दोनों समान रूप से करते है I विवेक ही हमें परिस्थिति अनुसार अपना व्यवहार करना सिखाता है और धैर्य के साथ मिलकर उन्नति और प्रगति की गाथा लिखता है I इसलिए ज्ञानी अपने ज्ञान से उन परिस्थितियों के अनुरूप कार्य व प्रयत्न करके सहजता व सरलता के साथ जी लेता है और उनको अवसर में बदल लेता है जबकि अज्ञानी उन विपरीत परिस्थितियों से घबरा कर हाथ पर हाथ धरे बैठ कर रोता है और अपना आज के साथ सुनहरा कल भी खोता है I

कबीरदास जी ने धैर्य का महत्व बताते हुए फिर कहा कि “ धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय, माली सिंचे सौ घड़ा ऋतू आए फल होय “ यानि एक बीज को अंकुरित होकर पौधा बनने व उस पर फल आने में समय लगता है अतार्थ कोई भी कार्य वक्त से पहले नहीं होता और प्रत्येक कार्य में वक्त लगता है परन्तु इसका मतलब यह नहीं की हम हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाये और कोई प्रयत्न न करें I धैर्य का मतलब यह कदापि नहीं की हम अपना कर्म करना छोड़ दे और भाग्य के भरोसे बैठ जाये I आलसी और काम से जी चुराने वाले को कभी भी कुछ भी नहीं मिल सकता, कुछ पाने के लिए गहरे में उतरना पड़ता है ,किनारे बैठे रहने वाले  के नसीब में मोती नहीं मिल सकता I इसलिए जीवन में इस सच्चाई को समझना होगा की लक्ष्य को सफलतापूर्वक पाने के लिए धैर्य से निरंतर प्रयास करना होगा तभी हम वांछित परिणाम प्राप्त कर पायेगे I

आपत्तियां व विपत्तियाँ हमारे धैर्य, विवेक और पुरुषार्थ को चुनौती देने के लिए ही आती है और जो इस परीक्षा में पास हो जाता है वो सफल माना जाता है तथा यश व जीत की जयमाला पहनता है I क्रोध, जल्दबाजी व अविवेकशीलता में किए गए कामों में खामियां रह जाती है या सही निर्णय नहीं लिया जाता और तनाव में विचलित हो जाते है परिणामस्वरूप हम मंज़िल तक नहीं जा सकते और हार, नुकशान व बदनामी का सामना करना पड़ता है I धैर्य वह सवारी है जो अपने सवार को कभी गिरने नहीं देती, न किसी के क़दमों में और न ही किसी की नज़रों में I अत: धैर्य व सहजता से जो कार्य किया जाता है वही सफलता की चोटी को छूता है I धैर्य और विश्वास जीवन की वो कुंजी है जिससे प्रत्येक सफलता का ताला खुलता है , जिसके पास धैर्य है उसके पास दुनिया की तमाम शक्ति है और वह सब कुछ प्राप्त कर सकता है I  अत: युवा साथियों, आप भविष्य हो ,आप उर्जा व जोश से लबरेज़ हो, शक्ति व कर्म का पर्याय हो, क्रांति व बदलाव का प्रतीक हो I आज जरूरत है युवा साथियों को धैर्य, संयम, विवेक व सहजतापूर्ण संस्कार, शिक्षा देने की ताकि वे अपनी उर्जा का सकारात्मक उपयोग कर सके और समाज निर्माण में अपनी भूमिका दे सके I भौतिकवाद की दौड़ में विवेकपूर्ण निर्णय ,संयमित व्यवहार व धेर्यपूर्वक कार्य करते हुए जीवन में सफलता को हमराज बनाना होगा I 

04/03/2015

 

मनोबल, मेहनत व मनोयोग की महता: डा. शीशपाल हरडू

मनोबल, मेहनत व मनोयोग की महता: डा. शीशपाल हरडू
जब भी कोई कार्य शुरू किया जाता है तो उस कार्य की सफलतापूर्वक सम्पनता इस बात पर निर्भर करती है की उस कार्य को क्यों व किसके द्वारा किया जा रहा है ? अगर वह कार्य लालच, भय, दवाब, मज़बूरी या दिखावेमात्र के लिए कर रहे है तो सफलता संदिग्ध होगी और भाग्यवश सफलता मिल भी जाये तो उसका मूल्य पोना ही रहेगा और अगर वही कार्य स्वेच्छा, लग्न, तन्मयता से किया जाये तो सफलता का मूल्य व उपस्थिति दोनों बढ़ जाएगी I हम किसी व्यक्ति की समय, स्थान विशेष पर उपस्थिति तो खरीद सकते है मगर मनोबल, उत्साह और अभिप्रेरणा नहीं खरीद सकते, बल्कि ये उसमे पैदा करने पड़ेंगे I
 हम सब कार्य करते है, श्रेष्ठ कार्य करते है या सर्वश्रेष्ठ कार्य करते है ये हमारे आंतरिक भाव व सोच पर निर्भर करता है I कार्य इच्छा या मज़बूरी से भी किया जा सकता है , श्रेष्ठ कार्य में इच्छा, जरूरत व लालच का मिश्रण रहता है जबकि सर्वश्रेष्ठ कार्य में लालसा, लग्न व नम्रता से मनोयोगपूर्ण प्रयास रहता है I  जब तक किसी कार्य के प्रति लालसा जागृत नहीं होगी, तब तक आपके प्रयास में संजीदगी व  तत्परता नहीं आ सकती I उस लालसा को संतुष्ट करने हेतु त्याग को तत्पर यानि कर्म करना होगा तथा कर्म करने के लिए लग्न जरूरी है, आपको साधन जुटाने होगे , साधनों को इस दिशा में लगाना होगा तभी आप इच्छित लालसा को परिपूर्ण करने योग्य बन पायेगे I कुछ पाने या सिखने के लिए आपको याचक बनना पड़ता है और नम्र रह कर पाना होता है I 
कहा जाता है की कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है और यह सौ फीसदी सच भी है I हमारी लालसा असीमित रहती है और उनको पूरा करने हेतु साधन सिमित रहते है अत: ज्यादा महत्वपूर्ण लालसा की पूर्ति हेतु साधनों को लगाते है और कम महत्वपूर्ण को कल के लिए छोड़ देते है I इस प्रकार हम एक तरफ हमारे साधनों का त्याग कर रहे है और दूसरी तरफ लालसा का भी त्याग कर रहे है I इसलिए हमें पाने और खोने में संतुलन कायम रखना होगा और जो पाना है उस दिशा में तमाम साधन, प्रयास व प्रयत्न लगा देने चाहिए ताकि असफलता की गुंजाइश कम से कम हो सके I हमें करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहना चाहिए, अगर करने में कोताही करेंगे तो सफलता मिलेगी वो सस्ती होगी , वहीँ असफलता मिलने पर मलाल रहेगा की काश थोड़ा प्रयास और कर लिया जाता तथा ये मलाल मिटता नहीं बल्कि हमसफर की सफलता देख कर और ज्यादा कचोटता है I
कहा यह भी जाता है की सफलता अपना मूल्य मांगती है और वो मूल्य पसीने के रूप में मांगती है I जब हम मेहनत के दम पर प्रयास करते है तो हमारा मनोबल ऊँचा रहता है व सफलता की दर को बढ़ा देता है I भाग्य के भरोसे कायर व आलसी बेठता है, जीतता वही है जो पुरे मनोयोग से लड़ता है I मेहनत व मनोबल का कोई पर्याय नहीं हो सकता और जो इस मार्ग पर चलता है उसके लिए मंजिल मुश्किल नहीं होती I जो संयोग में यकीन करते है उनकी जिन्दगी में संदिग्धता बनी रहती है व सफलता मेहमान I सफलता को स्थाई और सहयोगी बनाने के लिए आपको अपनी तरकश में मेहनत, मनोबल व मनोयोग रूपी तीर रखने ही होंगे I जब आप मेहनत व मनोबल पर सवार होकर मंज़िल को और बढोगे तो परिस्थितियाँ स्वत: आपके पक्ष में होती जाएगी और आपका होंसला सातवें आसमान पर रहेगा I
युद्ध व प्रतियोगिता में भाग्य गौण होता है , कर्म, क्रिया, प्रयास, प्रयत्न व  मनोबल आवश्यक और परिणाम का आधार होता है I कर्म कभी निष्फल नहीं जाता, क्रिया कर्म का प्रभाव बढाती है  वहीँ प्रयास  व प्रयत्न दिशा व दशा तय करते है और मनोबल मंजिल का राह आसान तो ही बनाती है , सुलभ व स्थायी भी बनाती है I इसलिए मनोयोग व मनोबल से किया कर्म सार्थक परिणाम देता है और परिस्थितियों का विजेता बनाता है I आज युवावर्ग को अनेकों चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, स्पर्धा से दो-चार होना होता है ऐसे में अवसाद और हीनता से बचने हेतु महापुरुषों की जीवनी व चरित्र पढ़ कर, योग्य व सद्चरित्र लोगो का संग करके, सात्विक भोजन करके, संयमित जीवनचर्या बना कर  मनोबल को कमजोर न पड़ने दे और प्रत्येक कार्य को पुरी शिद्दत, ईमानदारी, मेहनत, लग्न, मनोयोग से करते हुए उच्च मनोबल के साथ सफलता का वर्ण करें और अपना जीवन सफल, सरल व सहज बनाये I
05/03/2015