Friday, 23 January 2015

जीवन का आधार- हमारे संस्कार

जीवन का आधार- हमारे संस्कार
डा.शीशपाल हरडू
संस्कार दो शब्दों का मेल है सम+कार अतार्थ सम का मतलब सम्यक या अच्छा और कर का मतलब कृति या कार्य, इस प्रकार संस्कार यानि अच्छा कार्य I संस्कार का सामान्य अर्थ है-किसी को संस्कृत करना या शुद्ध करके उपयुक्त बनाना। किसी साधारण या विकृत वस्तु को विशेष क्रियाओं द्वारा उत्तम बना देना ही उसका संस्कार है। वहीँ आध्यात्मिक अर्थ में मन, वचन, क्रम और शारीर को पाक पवित्र करना, हमारी प्रवृतियों और मनोवृतियों को शुद्ध व सभ्य बनाना संस्कार होता है  और व्याहारिक अर्थ में सद्गुणों को बढ़ाना व दुर्गुणों को घटाना और अच्छी आदत लगाना व बुरी आदत छोड़ना संस्कार है I संस्कार से ही हमारा सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पुष्ट होता है और हम सभ्य कहलाते हैं। व्यक्तित्व निर्माण में संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संस्कार विरुद्ध आचरण असभ्यता की निशानी है।मनुष्य जन्म के समय विशुद्ध प्रकृति होता है , संस्कार मिलने से सस्कृति और विकार मिलने से उसमें विकृति आ जाती हैI इसप्रकार अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है, फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
व्याहारिक दृष्टि से संस्कार का अर्थ इस उदहारण से भी समझा जा सकता है जैसे की केला खा कर छिलका फेंक देना एक साधारण कृति (कार्य) है, केला खा कर छिलका कूड़ेदान में फेंक देना प्रकृति है, केला खा कर छिलका सड़क पर  में फेंक देना विकृति है और दुसरे व्यक्ति द्वारा केला खा कर सड़क पर फेंका गया छिलका उठा कर कूड़ेदान में डालना संस्कृति है या यूँ कहें की भूख लगना और खाना खाना प्रकृति है,दुसरे का खाना खाना विकृति है और भगवान को अर्पित करके खाना खाना संस्कृति हैI संस्कार पूर्णतया विरासत में मिलते है, बच्चे माता-पिता से सबसे ज्यदा सीखते है फिर अपने गुरुजनों से और फिर अपने नजदीक के वातावरण और अपने दोस्तों से सीखते है Iबच्चे के पहले गुरू माता-पिता होते है अत: सर्वप्रथम माता-पिता को धर्म-स्वरूप व संस्कारी बनना चाहिए, जैसा कार्य माता-पिता करेंगे वैसा ही बच्चे करेंगे ;जैसे गुण आपके होंगे , बच्चे वैसा ही सीखेंगे I अच्छे बुरे की पहचान का विवेक और उनमें अंतर समझने योग्य संस्कार बच्चे को उसके माता-पिता से ही मिलते है I
सामान्यत: माता-पिता कहते रहते है की बच्चे बिगड़ गए है, दोस्त,रिश्तेदार या उस जन-पहचान वाले ने बिगाड़ दिया है लेकिन इससे माता-पिता का दोष कम नहीं हो जाता क्योंकि बच्चे को अच्छे संस्कार देने का श्रेय माता-पिता को जाता है तो बच्चे में अच्छे संस्कार न होने का दोष भी उन्ही पर ही आता है I मैं माता- पिता के दृष्टिकोण से नहीं बच्चो के दृष्टिकोण से बात करूं तो कई बार माँ-बाप बच्चों में संस्कार व अनुशासन इत्यादि सिखाने में इतने आगे निकल जाते है की हम अपना मूल उद्देश्य पूर्णतया भूल जाते है नतीजन डोर अधिक खिंच जाती है ,बच्चे में विद्रोही प्रवृति पैदा हो जाती है I अति हमेशा बुरी होती है और अति से लाभ कम और हानि ज्यादा होती हैI इसलिए हमेशा माता-पिता को बच्चों के साथ मित्रभाव व प्रेममय व्यवहार रखते हुए एक आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए I संस्कार आदेश, निर्देश, प्रवचन या पठन-पाठन से नहीं आते और न ही तत्व-ज्ञान ,कथा-कहानी या किसी लालच से आते है बल्कि संस्कार आपके द्वारा किए गए कार्यों व व्यवहार का अनुसरण करने से आते है जैसे आप बच्चे को बड़े-बुजर्गों चरणस्पर्श के संस्कार देना चाहते हो तो यदि हम उसे ऐसा करने का कहेंगे तो दो-चार दिन करने के बाद छोड़ देगा ; लालच दिखाओगे तो उसकी मांग बढती जाएगी और एक विकार का रूप ले लेगी ; गुण-दोष समझोगे तो भी वे लगातार नहीं करेंगे और धीरे धीरे विद्रोही व्यवहार दिखाना शुरू कर देंगे I
बच्चे अपने माता-पिता के व्यवहार,रहन-सहन और उनके आचार-विचार से संकर ग्रहण करते है , जैसा  व्यवहार आप करेंगे बच्चे उससे आगे व्यवहार करते है I जैसे आप बच्चे को बड़े-बुजर्गों चरणस्पर्श के संस्कार देना चाहते हो तो आपको अपने बड़े-बुजर्गों के चरणस्पर्श करने होंगे, बच्चे आपको देखेंगे की आप दादा-दादीजी के चरणस्पर्श करते है तो वो स्वत: आप का अनुसरण करते हुए आप जैसा व्यवहार करना शुरू कर देंगे और अपनी जीवनचर्या में स्थायी रूप में शामिल कर लेंगे I अत: संस्कार मौन रहकर आदर्श कृत्य करने से आते है I इसप्रकार माता-पिता को चाहिए की वे अपने बच्चों के सामने आदर्श , मर्यादित ,सन्तुलित और प्रेममय जीवन व्यवहार प्रस्तुत करते हुए अपने बच्चों को संस्कारवान बनाये I

अब कुछ चर्चा  माता-पिता के दृष्टिकोण से भी करते है I कोई भी माता-पिता ये नहीं चाहता की उनका बालक कष्ट में जीवनयापन करे, उसका बच्चा संस्कारहीन बन कर एक अपराधी जैसा जीवन जिए I इस संसार में तीन प्राणी ऐसे है जो आपकी निस्वार्थ उन्नति की कामना करते है- माता, पिता और गुरू I आज के भौतिकवादी व प्रतिस्पर्धा के युग में जहाँ संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ने ले ली है, बच्चे दादा-दादी की बजाय किराये की आया की छत्र छाया में पल बढ़ रहे है तो बच्चों का माता-पिता के  प्रति लगाव व स्नेह कम होना स्वाभाविक है I आज बच्चे संस्कार दादा-दादी की कहानियों से नहीं टेलीविजन के नाटकों से ले रहे है ऐसे में बच्चों को उचित वातावरण उपलब्ध करवाना जहाँ माता-पिता का दायित्व है वहीँ बच्चों को सस्ते व हल्के दोस्तों और साहित्य से दुरी बनाते हुए, विकृत साधनों से दूर रहते हुए अपने माता-पिता के सपनो को समझने का प्रयास करना चाहिए तथा अपना भविष्य संस्कारों की सीडी बनाकर सफलता की मंज़िल तक पहुचना चाहिए I युवाओं को संस्कारित कृत्य करते हुए स्वम को अपने समाज के योग्य बनाकर तन, मन और मस्तिष्क से स्वस्थ रहकर अपने माँ-बाप के प्रति अपने फर्ज़ को निभाएं, अपने व अपने परिवार के दुःख-शोक मिटा कर शांति और समृद्धि का रास्ता खोलें व अपने जीवन को सुखद तथा सुंदर बनाये I

2 comments:

  1. आज का ज्वलंत विषय को लेकर जो विचार दिए गए है युवा वर्ग हेतु अत्यंत लाभदायक तथा विचारयोग्य विषय

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  2. Thanks prof seeshpal ji hardu.
    Very very motivational post added by you.

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