Tuesday, 14 April 2015

आत्मविस्मृत समाज और हम : डा. शीशपाल हरडू

आत्मविस्मृत समाज और हम : डा. शीशपाल हरडू  
भूलना मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है और याद रखना उसकी मज़बूरी I एक कहावत है कि जो सच है उसको याद रखने की जरूरत नहीं रहती और जो झूठ है वो याद रह नहीं सकता I परन्तु फिर भी व्यक्ति आज की बात को भुला कर कल की उधेड़बुन में लग जाता है और उसे विस्मृति नहीं रहती कि कल क्या घटा था I सुखद क्षण व्यक्ति भूल जाता है और दुखद क्षण को भूलना चाहता है I हमारे जीवन में प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ घटित अवश्य होता है और वो सब याद रखना न तो संभव होता है और न ही तर्कसंगत I परन्तु ज़िन्दगी के कुछ लम्हें, कुछ पल ऐसे होते है जिनको याद रखना आवश्यक होता है लेकिन भौतिकवादिता की अंधी दौड़ में हम हमारे कुछ खास अहम बातों को भी भूल रहे है I यहाँ तक की आज लोग अपने पूर्वजों को, अपने इतिहास को, अपने समाज भी भूल रहे है, जबकि हमें अपनी विरासत, अपनी पहचान, अपनी शक्ति, अपनी कला को अगर हम याद नहीं रखेंगे तो हम अपना सब कुछ खो देंगे I इतिहास हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है और कुछ सिखने का सबक भी I
विस्मृति राम भक्त हनुमान को भी हो गई थी जब सीता माता की खोज में समुन्द्र लाँघ कर लंका जाने बारे वानर सेना में विचार मंथन चल रहा था तो हनुमानजी एक तरफ चुपचाप खड़े थे तब जामवंत ने हनुमानजी को उनका बल याद करवाया, तब जाकर वे समुन्द्र लाँघ कर सीता माता की खोज करके आये I इसीप्रकार महाभारत के युद्ध के मैदान में अर्जुन को भी विस्मृति हो गई और अपने सारथि बने भगवान श्रीकृष्ण से पूछने लगे कि- मै कौन हूँ और मेरा कर्तव्य क्या है तब  भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश देकर स्मृति करवाई, तभी अर्जुन युद्ध करने को तैयार हुए और तब जाकर धर्म की अधर्म पर विजय संभव हो पाई I
आज हमारा समाज खुद को भुला बैठा है, अपने पूर्वजो को बिसराए बैठा है, अपनी विरासत को खोये बैठा है और अपनी पहचान को गायब कर बैठा है I आज हमारा समाज बिखरा हुआ अलग अलग जगह थोड़ी थोड़ी संख्या में बैठा हुआ है I आज हमारा समाज शिक्षा मे, व्यापार व नोकरी के क्षेत्र पिछड़ा हुआ है I आज हमारे समाज में एकता व सहयोग का अभाव, नशे व आपसी मनमुटाव का प्रभाव है I हम अपनी विरासत को, इतिहास को, पूर्वजों को भुला चुके है I आज हम खुद को ही भूले हुए है और जो समाज आत्मविस्मृति की स्थिति में चला जाता है तो उसकी उन्नति व विकास थम जाता है I इसलिए विस्मृति से स्मृति की अवस्था में लेन हेतु  उसको झंकझोरने, जगाने और अपनी पहचान याद करवाने के लिए ही हरडू मिलन मिशन का गठन किया गया है और अपनी अल्प अवधि में ही समाज को संगठित करने में सफलता पाई है I अब जरुरत है समाज मे शिक्षा का प्रचार प्रसार करने की , नशे व कुरीतियों के खिलाफ मुहीम छेड़ने की, आपसी मतभेद ख़त्म करवाने की, सहयोग व सहकार की भावना पैदा करने की  I
आओ हम सब मिलकर संकल्प ले की विस्मृत समाज की आत्मा को जगाये, कुरीतियों को मिटाए, शिक्षा का दीपक हर आँगन में जलाये, मतभेद भगाए और समाज को शिक्षित, समर्थ, सक्षम, सुदृढ़ व संगठित बनाये I  

14/04/2015 

Monday, 13 April 2015

भगवान गणेश एक आदर्श शिक्षक : डा. शीशपाल हरडू

भगवान गणेश एक आदर्श शिक्षक : डा. शीशपाल हरडू
भगवान गणेश बुद्धि के देवता है इसीलिए कोई भी कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व सबसे पहले गणपति की पूजा की जाती है ताकि बुद्धि व विवेक का कुशलतापूर्वक उपयोग करते हुए कार्य, लक्ष्य, उद्देश्य तथा मंज़िल निर्विघ्न रूप से प्राप्त कर सके I भगवान गणेश ही एकमात्र ऐसे देवता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से तो पूज्यनीय, वन्दनीय है ही परन्तु व्यवहारिक जीवन में भी इनका हर अंग, हर रूप हमें कोई न कोई नई शिक्षा देता है और जीवन जीने की कला व सलीका सिखाता है और एक सफल इन्सान की विशेषता बताता है I आइये जाने कि भगवान गणेश हमें क्या क्या शिक्षा दे रहे है :
1.     बड़ा सिर बड़े दिमाग, बड़ी बुद्धि का प्रतीक है क्योंकि आपको सोचने, चिंतन करने, विचारने, याद रखने के लिए हमें हमेशा अपना दिमाग खुला व विस्तृत, तीव्र व तेज़ बुद्धि रखनी होगी और संकीर्ण व छोटी सोच का त्याग करना होगा, तभी हम प्रतिस्पर्धा के युग में सफल हो पाएंगे I
2.      लम्बी सूंड यानि बड़ी नाक हमारी दूरदर्शिता व इज्जत का प्रतीक है जो कहना चाहती है परिस्थितियों व हालात को समय रहते दूर से ही सूंघ कर अनुमान लगाकर उसके अनुसार अपनी योजना अपनी व्युरचना बना कर नुकशान को मुनाफ़े में बदल सके I नाक इज्जत व सम्मान का भी सूचक है I
3.     छोटी व झुकी आँखें हमारे नजरिये व दृष्टिकोण की और इशारा करती है कि हर बात व हर वस्तु पर बारीकी से नजर रखो और किसी को छोटा मत समझो I झुकी आँखे कहती है की कभी भी किसी बात का घमंड मत करो , अभिमान का त्याग करो और हर एक का सम्मान करो I
4.     बड़े कान संदेश दे रहे है की आप अपने से जुड़े हर व्यक्ति की सुनो, क्या पता कौन आपको कोई महत्वपूर्ण सलाह या जानकारी दे दे जो आपके लिए राह आसान बना दे I इसलिए सुनो सब की करो मन की I
5.     बड़ा पेट कह रहा है कि आप अपनी योजनाओं को, अपनी बातों को, अपनी गुप्त व आवश्यक बातों व मुद्दों को अपने पेट में ही रखे , हर किसी के साथ उनको साँझा न करें, गुप्त बातों को पचाना सीखो I
6.     गणपति का वाहन चूहा दो सन्देश दे रहा है कि जो आपके पास है उससे संतोष करो और मितव्ययी बनो और दूसरा ये किबुद्धि कितनी भी बड़ी व तेज़ हो परन्तु उसे चलाने के लिए तर्क की जरूरत होती है, तभी तो गणपति इतने बड़े और वाहन चूहा इतना छोटा मगर अपनी बुद्धि व तर्क से हर कार्य करने में समर्थ I  बुद्धि, अक्ल व ज्ञान वही सफल व कारगर होता है जिसके पास सही व स्पष्ट तर्क हो, हो चाहे छोटा मगर होना सटीक चाहिए I
7.     भगवान गणेश की पत्नियाँ रिद्धि-सिद्धि हमारी कार्यकुशलता व कार्यक्षमता की प्रतीक है I हम अपनी कार्यकुशलता में वृद्धि करे और उसे सहेज कर बरकरार रखें तथा प्रशिक्षण व व्यवहार से अपनी कार्यक्षमता को हमेशा बनाये रखें I
8.     भगवान गणेश के पुत्र योग व क्षेम है जिनका अर्थ योग यानि जोड़ अतार्थ कार्यकुशलता व कार्यक्षमता में वृद्धि करते हुए आर्थिक लाभ को जोड़े और उसमें वृद्धि करें तथा क्षेम का अर्थ सुरक्षित रहने से है यानि जो आर्थिक लाभ कमाया गया है वो सुरक्षित, स्थिर व स्थायी रूप में रखने हेतु बुद्धि का प्रयोग करें I  
13/04/2015





Wednesday, 8 April 2015

हिन्दू देवी देवता और उनसे जुड़ी शिक्षा – डा. शीशपाल हरडू

हिन्दू देवी देवता और उनसे जुड़ी शिक्षा – डा. शीशपाल हरडू
शिव परिवार – भगवान शिव के परिवार में भिन्नता व अनेकता के बावजूद एक आदर्श परिवार का उदाहरण है I इसमें भगवान शिव ख़ुद भभूत लगाये बाघम्बर ओढ़े गले में सर्पों की व मुंड माला धारण किए जटाधारी मस्त लाखों वर्षों तक समाधि लगाये रखने वाले, और नंदी पर सवारी करने वाले I माता पार्वती रूपमती, श्रंगार शौकीन, नारी चरित्र अनुसार जिद्द करने वाली और शेर की सवारी करने वाली I एक बेटा कार्तिकेय अष्टावक्रधारी और करे मोर की सवारी वहीँ दूसरा बेटा गणेश जिसके बड़े बड़े कान, बड़ा पेट, छोटी आँखे, लम्बा नाक और सवारी वो भी चूहे की I घर में कुल चार सदस्य और चारों की पृकृति अलग अलग फिर भी आपस में पूरा सामजस्य I इन चारों के पास पांच पशु या जीव-जंतु यानि चूहा, सांप, मोर, नंदी और शेर तथा इनमें परस्पर शत्रुता का भाव I चूहे का शत्रु सांप, सांप का शत्रु मोर, नंदी का शत्रु शेर फिर भी इनमें से किसी ने भी शत्रुता नहीं निभाई और सब प्रेम से रहे I एक बात और भी महत्वपूर्ण की शिवजी का वाहन नंदी पार्वती के वाहन शेर से कमजोर फिर भी इनमें कोई झगडा नहीं बल्कि सब सहयोग और प्यार से रहते है I यह परिवार हमें शिक्षा देता है की चाहे हमारी पृकृति अलग अलग हो, विचार भिन्न भिन्न हो, परन्तु एक दुसरे की भावना का ख्याल रखते हुए हमें परस्पर प्रेम प्यार व सहयोग के साथ समूह भाव से संयुक्त रहकर ही हम उन्नति कर सकते है I 
भगवान गणेश – भगवान गणेश जिसके बड़े बड़े कान, बड़ा पेट, छोटी आँखे, लम्बा नाक और सवारी वो भी चूहे की I बड़े कान हमें शिक्षा देते है की हमेशा सावधान रहें, हर बात को ध्यान से सुने ; छोटी आँखे हमें बताती है की शुभ व अच्छाई को देखो ; बड़ा पेट कहता है की बात को पचाना सीखो ; लम्बा नाक हमें भविष्य की घटनाओं को पहले से ही भांपना यानि हर घटना का समय रहते पता लगाना और उसका उचित समाधान निकालना सिखाता है वहीँ इतने बड़े शारीर वाले की सवारी चूहा हमें बताता है की जो अपना है और जो अपने पास है उसी से संतुष्ट रहें, मितव्यतता करें I
राम, लक्ष्मण और सीता – भगवान राम एक मर्यादा पुरुषोतम, सर्वहितकारी व शूरवीर राजा, आज्ञाकारी पुत्र, वचन का पालन करने वाला राजा, भाई के लिए प्रेम और सत्य आचरण एवं आदर्श जीवन का प्रतीक I लक्ष्मण जैसा भाई प्रेम और निस्वार्थ त्याग एवं शूरवीरता का विशुद्ध चित्रण I सीता विपरीत परिस्थिति के बावजूद संकट के समय भी पति का साथ निभाने व आदर्श भक्ति की प्रतिमूर्ति I
इंद्रजीत और विभीषण – रावण के दोनों भाई , इंद्रजीत अन्यायी व अधर्मी रावण के पक्ष में राम के विरुद्ध लड़ा परन्तु समाज में इनका सम्मानित नाम जबकि विभीषन सत्य, धर्म व न्याय के लिए अपने भाई रावण को छोड़ कर राम का साथ दिया फिर भी समाज में इनका कोई नाम लेना तो दूर अपने बच्चे का नाम भी नहीं रखते I कहते है की जब विभीषण राम की शरण में जाने लगा तो इंद्रजीत ने उनको रोकते हुए कहा की ‘’भाई मै भी जनता हूँ की रावण अन्यायी व अधर्मी है परन्तु एक क्षत्रिय का धर्म यही कहता है की वो भाई को कभी भी दगा न दे और मुसीबत के समय तो उसका साथ देना एक क्षत्रिय का धर्म है’’ परन्तु विभीषन नहीं माना तो आज भी समाज उसको भाई का द्रोही मानता है और घर का भेदी लंका ढहाए कहावत प्रचलित हुई I भाई द्रोह के कारण आज भी लोग अपने बच्चे का नाम विभीषण नहीं रखते I 
शबरी – शबरी के गुरू जब देवलोक जाने लगे तो शबरी ने अपने गुरू से शंका जाहिर कि की जंगल में इस पर्ण कुटीर में भयानक जंगली जीवों व राक्षसों के मध्य मै अकेली औरत कैसे रह पाऊँगी तो गुरूजी ने कहा की मेरे जाने के बाद आपकी कुटिया में सिवाय भगवान राम के अन्य कोई कदम नहीं रखेगा और एक दिन भगवान राम जरूर आयेंगे I शबरी के यकीन, विश्वास व भरोसे ने भगवान राम को उसकी कुटिया में आकर झूठे बेर भी खाने को मजबूर होना पड़ा I
लक्ष्मी व सरस्वती : धन की देवी लक्ष्मी जी फोटो में ज्यादातर खड़ी होती है जो उनके चंचल स्वभाव का प्रतीक है और कहती है कि जब तक इसकी कद्र होगी तब तक ही ठहरेगी वरना तुरंत चल देगी I विद्या की देवी सरस्वती का चित्र हमेशा बैठा होता है क्योंकि सरस्वती या तो किसी पर मेहरबान होती नहीं और एक बार आ जाये तो फिर स्थायी रूप में विराजित होती है I
राम सीता विवाह : भगवान राम नें धनुष को तोड़कर सीता से विवाह किया , धनुष अहंकार का प्रतीक है जो हमेशा तना रहता है और जब भी उससे बाण निकलता है तो किसी के प्राण ही हरता है I यही हमारे जीवन में होता है कि जब तक हमारे अन्दर अहंकार रहेगा, हम किसी के भी प्रति प्रेम, द्या व विश्वास से नहीं जुड़ सकते I भगवान राम ने पहले अहंकार को तोड़ा, फिर सीता से विवाह किया जो शिक्षा देता है कि सुखी व आदर्श जीवन में अहंकार का कोई स्थान नहीं होता I
शिव पार्वती विवाह : माता पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए लाखों वर्षों तक कठोर तपस्या की , उपवास रखे, मुसीबतें झेली, तब जाकर माता पार्वती का शिव से विवाह हो सका I ऐसा समर्पण, श्रद्धा, विश्वास व प्रेम के कारण हुआ जो आज हर गृहस्थ के लिए आवश्यक है I

08/04/2015

Friday, 3 April 2015

धन की प्राप्ति लक्ष्मी रूप में या माया रूप में –डा. शीशपाल हरडू

धन की प्राप्ति लक्ष्मी रूप में या माया रूप में –डा. शीशपाल हरडू
दोस्तों आज मनुष्य का लगाव, आकर्षण और चाहत सिर्फ धन रह गया है, धन न केवल हमारी मुलभुत आवश्यकता की पूर्ति करता है बल्कि यह इज्जत-मान, शान व नाम पर हावी भी हो रहा है और हमारे अहं का पर्याय बन रहा है I भोतिक उन्नति के साथ साथ धन के महत्व को  इतना बढ़ा दिया की आज मनुष्य ने धन को साधन न समझ कर साध्य मान लिया है और साधन जब साध्य बन जाता है तो समाज में अनेको समस्याएं पैदा  हो जाती है I धन दौलत का नशा आदमी के सिर चढ़ जाता है और प्रत्येक दिन अन्य नशों की तरह यह भो और अधिक खुराक की मांग करता है व आदमी इसके बंधन में बंधकर अँधा हो जाता है तथा नैतिकता व अनैतिकता का भेद मिटा डालता है I दुनियां में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो मूलतः स्वभाव से अच्छी या बुरी हो, अच्छी बुरी वस्तु बनती है उसके उपयोग से I वस्तु का सदुपयोग उसको अच्छा व दुरूपयोग उसको बुरा बना देता है, यह प्रयोगकर्ता पर निर्भर करता है की वह उस वस्तु का प्रयोग केसे करता है I सदुपयोग उन्नति में सहायक होता है और दुरूपयोग पतन का कारण I
साधन के रूप में न्याय,ईमानदारी व धर्म के अनुसार धन कमाना बुरा नहीं है और धन के बिना न तो कल गुजरा होता था, न आज होता I जो मनुष्य अपना गुजारा भी नहीं कर सकता , वह दुसरे की सहायता क्या व कैसे कर सकता है I अत: जो धन अपने जीवनयापन के लिए आवश्यक है उसका स्त्रोत विवेक, मेहनत, ईमानदारी व सत्य होना चाहिए I हमारे शास्त्रों ने धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष नामक चार पुरुषार्थ बतलाये है यानि धर्मानुसार आचरण करते हुए अर्थ कमायें, शुभ व धर्म आज्ञानुसार कर्म करें और परम पुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करे I जब मनुष्य का धन ध्येय बन जाता है तो उसका चित्त धन का ही चिंतन करता है , चिंतन से धन में आशक्ति हो जाती है , आशक्ति कामना को जन्म देती है और कामना जब पूर्ण नहीं होती तब क्रोध आता है ,क्रोध से विवेक नष्ट होत्ता है और विवेक नष्ट होने से मनुष्य का मनुष्यत्व ख़त्म हो जाता है I कर्म ही पुरुषार्थ है और धन की देवी वहीँ रहना पसंद करती है जहाँ पुरुषार्थ हो I
साथियों, एक बात बहुत ही महत्वपूर्ण याद आ गई कि भारतीय दर्शन में धन की देवी लक्ष्मी के दो वाहन उल्लू व गरुड़ बताये गए है जो अन्य किसी भी देवी या देवता के पास नहीं है और इसके पीछे एक ख़ास वजह भी है I जब धन कमाने के हमारे साधन नियमानुकूल, सही, साफ, पाक, पवित्र होते है तो जो लक्ष्मी हमारे घर आती है , वे गरुड़ पर सवार होकर आती है क्योंकि गरुड़ एक शुभ पक्षी माना जाता है और ये धन घर में शुभ व बरकतकारक होता है I जबकि यदि धन गलत तरीके से अनीति व नियमविरुद्ध क्रिया द्वारा कमाया जाता है तो भी लक्ष्मी आती तो है परन्तु आती है उल्लू पर स्वर होकर I उल्लू का सीधा मतलब है की मुर्ख और दिन में न देख पाने वाला, यानि ये धन हमारी बुद्धि भ्रष्ट कर देता है और हम अनैतिक कार्यों में फंस कर या प्राकृतिक बाधा में फंस कर इस तरह कमाया धन बर्बाद हो जाता है I अध्यात्म में धन को लक्ष्मी भी कहते है और माया भी इसलिए जो धन सही जगह, ठीक आवश्यकता में, दान में खर्च होता है वो लक्ष्मी रूप में धन होता है , जबकि जो धन विलासिता में, नशे में, अनैतिक कार्यों में या निरर्थक कार्यों में खर्च होता है वह माया रूप में होता है I
हमें धन का अर्जन नहीं सृजन करना चाहिए , अर्जन में केवल धन कमाने पर ध्यान रहता है उसके तरीके पर नहीं जबकि सृजन  में सकारात्मक व धनात्मक तरीके से धन कमाना होता है I इसलिए यदि हम सच में धन का सुख पूर्वक भोग नहीं उपयोग करना चाहते है तो हमें केवल लाभ की और नहीं बल्कि शुभ और लाभ के साथ धन कमाना और उसका उपयोग करना चाहिए I धन वह शक्ति है जिससे हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकते है परन्तु संतुष्टि नहीं प्राप्त कर सकते I

02/04/2015  

Monday, 23 March 2015

समाज व संगठन की आवश्यकता- डा.शीशपाल हरडू

समाज व संगठन की आवश्यकता- डा.शीशपाल हरडू
समाज व संगठन की आवश्यकता - मानव एक सामाजिक प्राणी है उसे समाज की आवश्यकता हर कदम पर पड़ती है , बिना समाज के मानव के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती I समाज से निकल के जब कोई अकेला हो जाता है तो वह मनुष्य अपना आत्मनियंत्रण ओर आत्मविश्वास खो देता है, अवसाद, तनाव व अकेलेपन में खो जाता है तथा असफलता के अँधेरे कुएं में जा गिरता है I इसीलिए व्यक्ति से परिवार, परिवार से गाँव, गाँव से समाज, समाज से देश और देश से दुनियां बनी और इसकी परस्पर निर्भरता व सहयोग की परंपरा  से अपना जीवन सुखद, सरल व सुरक्षित बनाया I आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर पुन: एकल परिवार और एकांकी जीवन की मृगतृष्णा में फंस रहा है और समाज को विघटित करते हुए संयुक्त परिवार खत्म कर रहे है तथा युवा अपना जीवन बर्बाद कर रहा है I आज समाज व परिवार में जो संकिरणता व्याप्त है, घर परिवार का अस्तित्व खतरे में है, रिश्ते दाव पर है और हम अँधेरे की ओर भाग रहे है इसका बचाव हमारी परम्परा, संस्कृति में निहित नियम ‘वसुदेव कुटुम्भ’ में है और अपना निज हित छोड़ कर सर्व हित व विघटन को खत्म कर संगठन को अपनाना होगा तभी हम सहज व सुरक्षित जीवन जी पाएंगे I
संघों शक्ति कलियुगे कलयुग में संघ की शक्ति ही महत्वपूर्ण व प्रभावी है, संगठन ही हम सुरक्षित है व हमारा कल्याण है I संगठन में समूह की शक्ति व समझ से सफलता में गुणात्मक वृद्धि होती है तथा भार व कष्ट विभाजित हो जाता है तभी तो हम किसी महत्वपूर्ण कार्य को करते है तब संगठित प्रयास करते है I भगवान राम ने वानर सेना का समूह बनाया तो भगवान कृष्ण ने पांडवों को संगठित किया ओर अनीति व अधर्म के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी न की अकेले- अकेले रहकर I ठीक इसी प्रकार आज युवा साथिओं से निवेदन की नव-युगनिर्माण , नव-सृजन हेतु तथा अपने पूर्वजों की धरोहर को संरक्षित करने, संवारने व संजोने के लिए हमें हमारे समज को संगठित करना होगा तथा हमें अपनी पहचान प्रगतिशील, कर्मठ, शिक्षित, सहकार, सहयोगी व सृजनशील की बनानी होगी I अब हमें भाईचारे की मशाल हाथ में लेकर प्रेम प्यार का संदेश देते हुए संयुक्त व संगठित होना है I   
अकेला चना पहाड़ नहीं फोड़ सकता एक और एक मिलकर दो नहीं ग्यारह की ताकत बनते है , इसीप्रकार एक एक सींख से झाड़ू बनती है और यदि सींख बिखर जाये तो कचरा कहलाती है और जब वही सींख इकट्ठी होकर झाड़ू बनती है तो कचरे को ही साफ करती है I इसलिए अगर हम सब अलग अलग बिखरे रहेंगे तो हमारी ताकत व पहचान न के बराबर है परन्तु जब हम समूह में संगठित होकर समाज के सामने आयेंगे तो एक नई नज़ीर पेश होगी I जब दुर्जन लोग ताश खेलने या शराब पीने के लिए तुरंत समूह बना लेते है तो क्या हम अच्छे उद्देश्य, शुभ कर्म व श्रेष्ठ चिंतन के लिए संगठित नहीं हो सकते ?  यदि हम सृजनात्मक उद्देश्य के लिए संगठित होकर प्रयास करेंगे तो समाज की तस्वीर व तक़दीर ही बदल जाएगी I आज लोगों की सोच संकीर्ण व नजरिया नकारात्मक हो गया है और ‘अकेला चलो’ की राह पर चल रहा है जबकि शक्ति में वृद्धि या कमी गुणात्मक होती है I सामूहिकता में सहयोग, सुझाव, विचार, क्रिया व शक्ति का संचार बहुकोणीय हो जाता है तथा सफलता सरल हो जाती है I
संगठन की कार्यप्रणाली – संगठन या समूह में कार्य करने के लिए हमें बहुत ज्यादा त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, इसके लिए आपको अपनी सोच को सकारात्मक बनाना होगा I स्वयं का और अपने बच्चों का भरण-पोषण व रक्षा तो पशु पक्षी योनी में भी किया जाता है परन्तु मानव योनी में आकर हम अपने विवेकानुसार समाज में अपना एक स्थान बनाते है जिसे छोटे स्तर पर परिवार और विस्तृत स्तर पर समाज की संज्ञा दी जाती है व उसमे स्वयं को सुरक्षित महसूस करते है I समूह में हमे बस छोटे स्तर से विस्तृत स्तर की सोच, विचाधारा को बढ़ावा देते हुए स्वयं के विकास व उन्नति में समाज का विकास व उन्नति खोजनी है I घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों की जिम्मेदारी निभाने के बाद फुर्सत के कुछ क्षण समाज चिंतन हेतु लगाइए, थोडा वक्त समाज को भी दीजिये क्योंकि समाज का एक भाग हमारा परिवार है और परिवार के अभिन्न अंग आप है I यदि सब साथी एक-एक दिन संगठन को दें व यदि 365 साथी जुड़ जाये तो 365 दिन मिल गए I यह कार्य एक-दो या पांच-सात का नहीं, सबका है , सबके लिए है और सब करें क्योंकि बूंद-बूंद से ही सागर भरता है I
संगठन के लाभ – 1. मिलजुल कर सृजनात्मक विषयों पर सार्थक चर्चा संभव होगी I
2. सामाजिक समस्याओं व कुरीतिओं का निवारण संभव होगा I
3. समूह व सहकारिता की भावना का विकास होगा I
4. अपनी विरासत व इतिहास का सृजन व सरंक्षण संभव होगा I
5. समाज में शिक्षा के प्रचार प्रसार को गति मिलेगी I

23/03/2015 

एकता में उन्नति व शक्ति – डा शीशपाल हरडू

एकता में उन्नति व शक्ति – डा शीशपाल हरडू
एकता का अर्थ यह नहीं होता कि किसी विषय पर मतभेद ही न हो। मतभेद होने के बावजूद भी जो सुखद और सबके हित में है उसे एक रूप में हम सभी स्वीकार कर लेते हैं। एकता का मतलब ही होता है, सब के भिन्न-भिन्न विचार होते हुए भी हम आपसी प्रेम, प्यार और भाईचारे के साथ एकजुट एक साथ खड़े रहना । एकता में केवल शारीरिक समीपता ही महत्वपूर्ण नहीं होती बल्कि उसमें मानसिक,बौद्धिक,  वैचारिक और भावात्मक निकटता की समानता आवश्यक है। एकता ही समाज का दीपक है- एकता ही शांति का खजाना है। समाज की एकता के साथ आवश्यकता है- घर की एकता, परिवार की एकता की। क्योंकि जब तक घर की एकता नहीं होगी- तब तक समाज, राष्ट्र, विश्व की एकता संभव नहीं। एकता ही समाज को विकासशील बना सकती है। इसलिए परिवार की परिभाषा को विस्तृत  बनाये और आपसी मतभेद को मनभेद में तब्दील होने से पूर्व ही उसका उचित समाधान निकाल कर एक माला और उसके मानकों की भांति परिवार को एक मजबूत इकाई का स्वरूप प्रदान करें I संगठन से एकता का जन्म होता है एवं एकता से ही शांति एवं आनंद की वृष्टि होती है।
संगठन ही सर्वोत्कृषष्ट शक्ति है। संगठन ही समाजोत्थान का आधार है। संगठन के बिना  समाज का उत्थान संभव नहीं। एकता के बिना समाज आदर्श स्थापित नहीं कर सकता।, क्योंकि एकता ही समाज एवं देश के लिए अमोघ शक्ति है, किन्तु विघटन समाज के लिए विनाशक शक्ति है। विघटन समाज को तोड़ता है और संगठन व्यक्ति को जोड़ता है। संगठन समाज एवं देश को उन्नति के शिखर पर पहुंचा देता है। आपसी फूट समाज का विनाश कर देती है। धागा यदि संगठित करके एक रस्सी बना ली जाए तो वह हाथी जैसे शक्तिशाली जानवर को भी बांधा जा सकता है। किन्तु यदि वे धागे अलग-अलग रहें तो उससे एक तिनके को भी नहीं बांधा जा सकता  हैं। संगठन ही प्रगति का प्रतीक है, जिस घर में संगठन होता है उस घर में सदैव शांति एवं सुख की वर्षा होती है।
बिखरा हुआ व्यक्ति टूटता है- बिखरा समाज टूटता है- बिखराव में उन्नति नहीं अवनति होती है- बिखराव किसी भी क्षेत्र में अच्छा नहीं। जो समाज संगठित होगा, एकता के सूत्र में बंधा होगा, वह कभी भी परास्त नहीं हो सकता- क्योंकि एकता ही सर्वश्रेष्ठ शक्ति है, किन्तु जहाँ विघटन है, एकता नहीं है उस समाज पर चाहे कोई भी कमजोर कर देगा।
बहुत बड़े विघटित समाज से छोटा सा संगठित समाज ज्यादा श्रेष्ठ है। इसलिए मेरे प्रिय युवा साथिओं, यदि आप अपने समाज को आदर्श बनाना चाहते हो तो एकता की और कदम बढाओ। जब समाज संगठित, शिक्षित व समृद्ध होगा तो हम सब भी शिक्षित व समृद्ध होंगे I
23/03/2015


Sunday, 22 March 2015

प्रबंध की जीवन में सार्थकता- डा.शीशपाल हरडू

प्रबंध की जीवन में सार्थकता- डा.शीशपाल हरडू
भूमिका- प्रबंध का सामान्य अर्थ व्यवस्थित होने या करने से लगाया जाता है, अवसर, साधन सिमित व मांग, चुनौतियां, आवश्यता असीमित है और उनमें सामजस्य स्थापित करते हुए दूसरों से बेहतर व सार्थक परिणाम प्राप्त करना ही पबंध है I मनुष्य संवेदनशील, विवेकशील व चिन्तनशील प्राणी है अत: किसी क्रिया की प्रतिक्रिया क्या होगी, पूर्वंनिर्धारण करके कोई सर्वमान्य सिद्धांत देना मुश्किल होता है I एक व्यक्ति आज जीने के लिए संघर्ष कर रहा है, कल सुरक्षा के लिए, फिर सम्मान के लिए तो कभी सहजता व कल्याण के लिए संघर्ष करता नजर आता है I अति महत्वपूर्ण बात की अवेहलना कर जाता है, वहीँ छोटी सी बात को भार/बोझ  मान लेता है I मनुष्य के व्यवहार पर खुद की सोच के अतिरिक्त उसके परिवार, नाते-रिश्तेदार, समाज में व्याप्त घटनाये भी प्रभावित करती है और आपने व्यवहार में परिवर्तन व बदलाव लाता है I आज एक तरफ मनुष्य तनाव, अवसाद व दवाब में जी रहा है वहीँ  दूसरी और प्रतिस्पर्धा भयावह रूप ले रही है ऐसे वातावरण में मानव प्रबंध के लिए सर्वमान्य सिद्धांत तो नहीं दिए जा सकते परन्तु  उसकी जीवनचर्या को सरल व  कार्यक्षमता को प्रभावी बनाने के लिए मार्गदर्शन तो किया ही जा सकता है I
सामान्य प्रबंध- मानव सभ्यता के विकास के साथ बाज़ार का भी विकास हुआ और बाज़ार को नियंत्रण करने व प्रभावी बनाने के लिए प्रबंधन का भी विकास हुआ I जब हेनरी फेयोल के प्रबंध के सिद्धांत विकसित नहीं हुए होंगे, टेलर का वैज्ञानिक प्रबंध की भी खोज नहीं हुई होंगी, ओद्योगिक क्रांति भी नहीं आई थी , परन्तु  प्रबंध का अस्तित्व किसी न किसी रूप में अवश्य रहा है I ओद्योगिक इकाइयों में नहीं, घर-परिवार का प्रत्येक दैनिक कार्य प्रबंध से ही सम्पन्न होता है बिना प्रबंध के किया गया प्रयास अँधेरे में तीर चलाना मात्र है I बिना प्रबंध के सामूहिक क्रिया की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती बल्कि व्यक्तिगत जीवन जीना भी संभव नहीं हो सकता I जब हम नियमबद्ध, क्रमबद्ध और व्यवस्थित तरीके से काम करते हुए सफलता की सम्भावना को बढ़ाना चाहते है तो हमे प्रबंध की शरण में जाना ही होगा, बिना प्रबंध सफलता अंधे के हाथ बटेर लगने के समान है I  प्रबंध मनुष्य की सभी क्रियाओं में अंतर्व्याप्त है और इससे बाहर व इसके बिना कुछ भी संभव नहीं है I हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य जैसे उत्पादन, व्यवसाय, शिक्षा, धर्म, राजनीति, सामाजिक उत्थान आदि संगठनों से बंधे है और मानव अपने लक्ष्य व आवश्यकता की पूर्ति हेतु विभिन्न संस्थाओं पर निर्भर रहता है अत: प्रबंध ही  संगठनों को उत्पादक, उद्देश्यपूर्ण व कार्यशील बनता है I पबंध ही मानव-शक्ति, सामग्री, मशीन, बाज़ार व मुद्रा आदि संसाधनों का उचित विदोहन करके लाभभागिता बढाता है I प्रबंध  नियोजन, संगठन,उत्प्रेरण, मार्गदर्शन, निर्देशन, नेतृत्व, पर्यवेक्षण, निर्णयन, सृजन और नियंत्रण की एक प्रक्रिया है I इस प्रक्रिया से हम न केवल स्वंय कार्य करते है बल्कि अन्य सहयोगी व अधीनस्थों से भी कार्य वैज्ञानिक ढंग से करवाने में सफल होते है I प्रत्येक कार्य को करने का एक सर्वोतम ढंग होता है की अवधारणा को स्वीकार करते हुए प्रयोगों व विश्लेषणों के आधार पर कार्य की सर्वोतम विधि खोजने और उस विधि से कार्य करना व करवाना प्रबंध कहलता है I
समय के साथ कार्य प्रबंध- प्रबंध मूलतः संसाधनों का ही किया जाता है और संसाधनों में मानव-शक्ति, सामग्री, मशीन, बाज़ार व मुद्रा के रूप में प्राप्त है इनमें से केवल मानव-शक्ति ही संजीव है अन्य सब निर्जीव है और इन निर्जीव संसाधनों का प्रबंध संजीव संसाधन यानि मानव-शक्ति को ही करना होता है I मानव संसाधन से आशय मानव के समय से होता है और उसका समय खरीद कर उसे प्रशिक्षित करके उसकी गुणवता तो बधाई जा सकती है परन्तु उसकी कार्यक्षमता को भविष्य के लिए संरक्षित करके नहीं रख सकते बल्कि उसकी कार्यक्षमता को सही समय पर, सही स्थान पर, सही निर्देशन के साथ योजनाबद्ध तरीके से लगाकर लाभ लिया जा सकता है I समय अविरल चलता है, यह न कभी रुका है और न कभी रुकेगा, इसलिए जिस संसाधन पर हमारा नियंत्रण ही नहीं है उसका हम प्रत्यक्ष तौर पर प्रबंध भी नहीं कर सकते I हाँ, समय अपनी गति से चलता है  अत: समय की गति के साथ हम अपने प्रयासों यानि किए जाने वाले कार्यों का प्रबंध कर सकते है I समय पर हमारा नियंत्रण नहीं है परन्तु हम कब क्या कार्य करें इस पर हमारा  नियंत्रण है , अत: स्वंय पर नियंत्रण करके ही हम किए जाने वाले कार्यों व प्रयासों का सही व उचित प्रबंध करके समय का सदुपयोग कर सकते है I हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए की समय पर नियंत्रण सम्भव नहीं है अत: इसका प्रत्यक्ष प्रबंध भी सम्भव नहीं हो सकता I  इसलिए हम अपने संसाधनों, कार्यों व प्रयासों  का प्रबंध करके ही अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों  व मंज़िल को प्राप्त कर सकते है I  हमारा समय के साथ कार्यों व प्रयासों का समन्वय  ही कार्य का प्रबंध कहलाता है जिसे कुछ लोग समय प्रबंध भी कह देते है I
जीवन प्रबंध-संसार के सब प्रबंध सीख लिए मगर जीवन का प्रबंध शेष राह गया जबकि मानव के लिए जीवन से महत्वपूर्ण अन्य कुछ भी नहीं, यदि जीवन है तो सब कुछ है I जीवन मूल्यों से पहले जीवन का प्रबंध सही व उचित होना आवश्यक है अन्यथा जीवन को व्यर्थ गंवाने का कोई ओचित्य नहीं I यदि जीवन में निराशा, नीरसता, निष्फलता है तो इसके पीछे हमारे कु-प्रबंध का ही हाथ है क्योकि सफलता में कर्म की प्रधानता रहती है और हम नियोजित कर्म के अभाव में असफल होकर किस्मत को अन्यथा दोष देते है I प्रबंध कहिए या व्यवस्था, एक की बात है और जीवन में सु-प्रबंध मानव का अति विशिष्ट गुण है तथा इसे समाज में प्रचलित करना चाहिए Iजीवन को व्यवस्थित करना बहुत ही कथन काम है मगर सफल जीवन जीने के लिए उतना ही आवश्यक भी है I आज विज्ञानं ने जितनी उन्नति की है उससे कहीं ज्यादा चुनौतियां भी खड़ी कर ली है और एक तरफ जीवन सुगम, सरल व आसान हुआ है वहीँ आलस्य, अवसाद, तनाव व अकेलापन की समस्या भी पैदा हो रही है I भौतिकवादिता व प्रतिस्पर्द्धा के युग में युवावर्ग तरक्की व उन्नति की चाह में अपनी दिनचर्या को बिगाड़ रहा है व नई नई चुनौतिओं को आमंत्रण दे रहा है I विज्ञानं की सहायता ले, विकास करें,नई तकनीक अपनाएं मगर अपनी मौलिक अवधारणा व प्राकृतिक मूल्यों की कीमत पर नहीं I माना विकास के साथ विनाश भी होता है परन्तु हमे अपना जीवन प्रबंध या व्यवस्था इसप्रकार बनानी चाहिए की विकास अधिकतम व विनाश न्यूनतम हो, प्रकृति के सानिध्य में रहकर संसाधनों का जागरूकता के साथ प्रयोग करते हुए जीवन मूल्यों को सुगम, सरल, सहज व सफल बनाना होगा I  
स्वंय प्रबंध- दुनिया में एक देन ऐसी है जिसे हर कोई देना चाहता है, लेना कोई नहीं  और वो है प्रवचन, उपदेश या आदेश I हम अब तक दुसरों के बारे में ही बातें करते आये है स्वंय के विषय में कभी कुछ नहीं बोला I प्रबंध में भी हम दूसरों से कार्य करवाना को ही शामिल करते रहे है या दूसरों को ही व्यवस्थित होने का उपदेश देते रहे है I अब इस विचर में परिवर्तन आ रहा है और मानव स्वंय को भी प्रबंध का अंग मानने लगा है और स्वंय को व्यवस्थित की बात करने लगा है I वास्तविकता भी यही है की हम दूसरों की अपेक्षा स्वंय को आसानी से बदल सकते है, परिस्थितिनुसार परिवर्तित कर सकते है और अन्य जन को अभिप्रेरित करने के लिए स्वंय अपने आप का अभिप्रेरण आवश्यक है I स्वंय का प्रबंध व्यक्तिगत जीवन के लिए ही नहीं बल्कि सार्वजनिक जीवन के लिए भी आवश्यक है क्योंकि हमारी सफलता हमारे सहयोगिओं को भी अभिप्रेरित करती है I अत: जीवन में सफल व कामयाब होने के लिए उपदेश की अपेक्षा अनुकरण व अनुशरण अधिक प्रभावी व कारगर सिद्ध होता है  
निष्कर्ष- प्रबंधित या व्यवस्थित ढंग से किया गया प्रयास सफलता के समांतर होता है और योजनाबद्ध, व्युरचना के साथ संसाधनों का समुचित व क्षमतानुसार उपयोग करते हुए कार्य का प्रारम्भ निश्चित व सिद्ध फल के साथ अंत की और ले जाता है I आज पीछे देखने का वक्त नहीं है बल्कि अतीत के सबक को साथ लेकर आज अपना सम्पूर्ण देकर कल को सुखद, सुंदर व सफल बनाने का है I आज आदेश या निर्देश से नहीं बल्कि नेतृत्व व अग्रणीयता प्रदान करते हुए संसाधनों को प्रयास से परिणाम में परिवर्तित करने का प्रबंध करने की जरूरत है तभी हम इच्छित व स्थायी मंज़िल हासिल कर पाएंगे I

22/03/2015